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बात है सन 1980 के दशक के पूर्वार्ध, तब की जब न तो , नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) की “धारा” ब्रांड से  भारत के खाद्य तेल बाजार में क्रांति आई थी, न भारत सरकार द्वारा अनुमोदित एनडीडीबी का एमआईओ (Market intervention Operation)  शुरू हुआ था और इंडियन डेयरी कार्पोरेशन(IDC)  और एनडीडीबी (नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड)  के मर्जर से बना उसी नाम का “नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड” भारत की संसद में पास विधेयक के अनुरूप एक राष्ट्रीय महत्व का संस्थान  बना था। एनडीडीबी तब चैरिटेबल सोसायटियों एक्ट और बांबे पब्लिक ट्रस्ट के अंतर्गत एक रजिस्टर्ड संथा थी। 

डाक्टर कुरियन शुरू से ही १९६५ से १९९८ तक एनडीडीबी के अवैतनिक चेयरमैन रहे। डाक्टर कुरियन ने एनडीडीबी चेयरमैन पद के लिये भारत सरकार से वेतन के रूप में एक रुपया भी न लिया। एनडीडीबी के चेयरमैन भारत सरकार द्वारा नामित किये जाते थे। सरकारी आदेश में डाक्टर कुरियन के चेयरमैन पद पर रहने की समय सीमा उल्लेखित होती थी। कभी एक साल कभी दो साल, कई बार तो महीने महीने एक्सटेंशन आता था डाक्टर कुरियन को चेयरमैन पद पर बने रहने के लिये। बाक़ी बोर्ड मेंबर चेयरमैन यानि डाक्टर कुरियन  की सलाह पर भारत सरकार द्वारा नामित होते थे। कुछ सदस्य भारत सरकार के पदेन अधिकारी भी होते थे। 

तो बतर्ज अटल बिहारी वाजपेयी जी “भाइयों बहनों देवियों और सज्जनों” यह कहानी है ।

क्या, बोले ? मैं कहानी के नाम पर गप्प सुनाऊँगा। अरे नहीं । आज नहीं । फिर कभी। 

हर कहानी कोरी गप्प थोड़े ही होती है। सही है कि कुछ कहानियों में लेखक अपनी काल्पनिकता का सहारा लें कथ्य का ताना बाना बुनता है । पर सच्ची कहानियाँ भी होती है  यह कहानी कुछ इसी तरह की है यथार्थ की , भोगे हुये यथार्थ की । हाँ  उम्र का तक़ाज़ा है यादें सालों बाद कुछ धुंधला जाती है। ख़ैर फ़लसफ़ा झाड़ने की बजाय वह करता हूँ जो करना चाहता था। 

तो  “भाइयों बहनों देवियों और सज्जनों”, गुजरात के आनंद में, 1980 के दशक के पूर्वार्ध मे, एनडीडीबी के मुख्यालय में एक रोचक घटना घटी। घटना घटने के लिये हमसे पूछ कर थोड़े ही घटती है। बस घट जाती है। अब घटना रोचक है या ही  यह तो निर्भर करता है घटना पर जिन पर वह घटती है वह ही बता सकते हैं उनकी उस समय कैसी कटी। यह वह दौर था जब कभी चलने कभी न चलने वाले अर्जेंट और लाइटनिंग काल वाले लैंडलाइन फ़ोन ही संचार का माध्यम हुआ करते थे।

 लेखा परीक्षा ( आडिट) वह भी अंतरराष्ट्रीय आडिट नौकरशाहों द्वारा संचालित एक तरह का युद्धक्षेत्र था, और डॉ. वर्गीज कुरियन—भारत के “मिल्कमैन” और श्वेत क्रांति के रचनाकार—एनडीडीबी को अनजान क्षेत्रों में ले जा रहे थे। 

एनडीडीबी के तेल बीज और वनस्पति तेल प्रभाग के प्रमुख के रूप में, मैं , खुद को यूसएआईडी के दो लेखापरीक्षकों के साथ एक जोखिम वाले टकराव के केंद्र में पाया।

उन दिनों, मैं एनडीडीबी में अध्यक्ष के एक्ज़िक्यूटिव असिस्टेंट पद के अलावा, एनडीडीबी के तिलहन और वनस्पति तेल विंग का प्रमुख भी बनाया जा चुका  था। डॉ. चोथानी तब तक तिलहन और वनस्पति तेल विंग के कार्यकारी निदेशक नहीं बने थे।

ऐसा हुआ कि डॉ. कुरियन ने मुझे उस सुबह अपने कार्यालय में मिलने के लिए बुलाया। जैसे ही मैंने कमरे में प्रवेश किया, साहब ने कहा “तुम्हारे दोस्त कैसे हैं?” मैं समझ गया कि वह यूएसएआईडी के दो लेखा परीक्षकों का ज़िक्र कर रहे थे। पिछले दस-पंद्रह दिनों से, यूएसएआईडी के कराची कार्यालय के दो लेखा परीक्षक एनडीडीबी आफिस में डेरा जमाये हुये थे और उन्हें मेरे  आफिस के सामने वाला कमरा दे दिया गया था । वह हर रोज़ वहाँ बैठ अपना काम करते थे। जो फ़ाइल या लेखा पत्रक वह माँगते थे उन्हें दे दिया जाता था। चूंकि मामला मेरे डिवीज़न से संबंधित था, इसलिए मैं अपने संगठन एनडीडीबी की ओर से उन्हें जवाब देने के लिए मुख्य प्रशासनिक अधिकारी था। इस काम में, लेखा विभाग के श्री जी. रंगम मेरी मदद करते थे।

एनडीडीबी की तिलहन और वनस्पति तेल परियोजना

इस परियोजना के तहत, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड को 160,000 टन परिष्कृत सोयाबीन तेल की आपूर्ति की। इस खाद्य तेल की आपूर्ति अमेरिकी एजेंसी यूएसएआईडी द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के सहकारी लीग (सीएलयूएसए – क्लूसा) के माध्यम से राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) को भारत में नामित बंदरगाहों को उपहार के रूप में की गई थी। बाद में, कनाडाई एजेंसी सीआईडीए- सीडा ने कनाडा सहकारी संघ (सीयूसी) के माध्यम से एनडीडीबी को 90000 टन कच्चा रेपसीड तेल भी उपहार में दिया। 

हमने लेखा परीक्षकों को परियोजना खाते और बहीखाता का पूरा विवरण दिखाया था। लेकिन वे ज़ोर दे रहे थे कि उन्हें हमें ओवरफ्लो खाते से किए गए व्यय का खाता भी दिखाना चाहिए। हमने कहा कि हम इसे नहीं दिखाएंगे। समझौते के अनुसार, हमें अमेरिकी संगठन CLUSA (संयुक्त राज्य अमेरिका के सहकारी लीग) को प्रति टन छह हज़ार रुपये का खाता देना था। जो हम कर रहे थे। पर वास्तव में भारतीय बाज़ार में तेल बेचने पर 6000 रुपये प्रति टन से अधिक प्राप्त होते थे। ऐसे  किसी भी फंड को ओवरफ्लो या अधिशेष खाते में जमा किया जाता था।

हमने लेखा परीक्षकों की मौखिक मांग को मौखिक रूप से अस्वीकार कर दिया। तब लेखा परीक्षकों ने उसी प्रश्न को लिखित रूप में दोहराया। “हमें पूरा खाता दो”। हमने इसे लिखित रूप में भी दिया कि हम इसे नहीं देंगे।

यह एक गतिरोध था।

हमने कहा कि दोनों संगठनों के बीच समझौते और अनुमोदित परियोजना के लिखित दस्तावेज के अनुसार, हम आपको केवल परियोजना खाते ( प्राजेक्ट एकाउंट ) में जमा धन  और संवितरण ( डिसबर्समेंट)  का खाता देंगे।

डॉ. कुरियन हमारे और इन लेखा परीक्षकों के बीच संघर्ष के बारे में लगभग दैनिक अपडेट लेते था। हमें साहब को बताना था कि पिछले दिन क्या हुआ था। लेकिन उस दिन साहब ने हमें सुबह ही बुलाया था।

जब उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हारे दोस्त कैसे हैं? मैंने कहा, “सर, कुछ भी नया नहीं है, वे अधिशेष खाते के विवरण को देखने पर ज़ोर दे रहे हैं और जैसा कि तय किया गया है हमने कहा हम नहीं दे सकते। वे बस बैठे हैं  समय बिता रहे हैं। “।

डॉ. कुरियन ने कहा, “उन्हें बता दो कि जॉर्ज वार्नर को गिरफ़्तार कर लिया गया है।”

मैं अवाक था। मैंने कहा, “सर, वही जॉर्ज वार्नर जो दिल्ली में यूएसएआईडी के साथ फूड फ़ार पीस अफ़सर थे जब हमारी परियोजना पर क्लूसा और यूएसएआईडी के साथ बातचीत चल रही  थी”

सर ने कहा, “हाँ, वही जॉर्ज वार्नर”।

मैंने पूछा, सर, आप कैसे जानते हैं? सर ने कहा “मैंने आज सुबह वॉयस ऑफ़ अमेरिका पर यह ख़बर सुनी। जब जॉर्ज वार्नर को बैंकॉक में तैनात किया गया था, तो वह कम्पुचिया को आपूर्ति के लिए यूएसएआईडी द्वारा ख़रीदे गए चावल पर प्रति टन 3 डॉलर की रिश्वत लेता था। जांच एजेंसियों को इसके वीडियो सबूत मिले हैं।

मैं उस कमरे में गया जहां दोनों ऑडिटर बैठते थे। मुझे उनमें से एक का नाम याद है। चावला। वह हिंदुस्तानी था लेकिन कराची में यूएसएआईडी कार्यालय में काम करता था।

एनडीडीबी की तिलहन और वनस्पति तेल परियोजना

समझौते के अनुसार, भारत में संयुक्त राज्य अमरीका से मिले रिफाइंड सोयाबीन तेल को बेचने के बाद, परियोजना कोष में 6000 रुपये प्रति टन जमा किया जाना था। लेकिन इसे 6000 रुपये प्रति टन से अधिक कीमत पर बेचा गया। यह तेल  55-गैलन ड्रम में जहाज द्वारा कांडला बंदरगाह पर लाया जाता था। इस तरह 160,000 टन तेल को 6000 रुपये प्रति टन के हिसाब से बेचने पर  160000×6000= 96000000 यानी 96 करोड़ इकठ्ठा हुये। 

लेकिन जब एनडीडीबी ने तेल बेचना शुरू किया, तो जहाँ तक मुझे याद है, पहला बिक्री चालान 8640 रुपये प्रति किलो का बना था। यानी 8640 रुपये प्रति टन! बाद में, जैसे-जैसे भारतीय बाजार में खाद्य तेल की कीमत बढ़ी या घटी, हमारे तेल बेचने का मूल्य भी उसी हिसाब से तय हुआ। लेकिन तेल की कीमत कभी भी आठ रुपये प्रति किलो से कम नहीं हुई। इस तरह, NDDB से हुये  समझौते में बताए गए छह हजार रुपये प्रति टन से ज़्यादा मिले। यह पैसा NDDB के दो खातों में जमा किया जाता था। समझौते के अनुसार, बेचे गए तेल की मात्रा के छह हजार रुपये Oilseeds and Vegetable Oil Project (तिलहन एवं वनस्पति तेल परियोजना ) के खाते में जमा किए गए और छह हजार प्रति टन से ऊपर एकत्र किए गए पैसे NDDB के एक अलग खाते में जमा किए गए। जहाँ तक मुझे याद है, उस खाते का नाम “ओवरफ्लो” या “सरप्लस” खाता या कुछ ऐसा नाम था।

अभिवादन के बाद, जब मैंने यूएसएआईडी ऑडिटर चावला को बताया कि जॉर्ज वार्नर को गिरफ़्तार कर लिया गया है, तो उसने पूछा कि आप कैसे जानते हैं। मैंने कहा कि यह ख़बर वॉयस ऑफ़ अमेरिका पर थी। पेंसिल उसके हाथ से गिर गई। उसने फिर से पूछा “क्या यह सच है”। मैंने कहा, “हाँ”।

फिर हम दोनों ने खुल कर बात करना शुरू कर दिया और मैंने उन दोनों और अपने लिए चाय मंगवाई। यूएसएआईडी ऑडिटर चावला ने मुझे बताया कि वे और कई अन्य ऑडिटर अलग-अलग परियोजनाओं का ऑडिट कर रहे थे, हर जगह जहां भी जॉर्ज वार्नर की  पूर्व मे  तैनाती रही हो। एक तरह से, वह  दोनों आडिटर एक ऑडिट ट्रेल का अनुसरण कर रहे थे।चावला जी ने कहा, क्या मैं अपने दिल्ली कार्यालय को कॉल कर सकता हूं। मैंने उनके  लिए एक फ़ोन कॉल की व्यवस्था की। उन्होंने ने बात की और कहा कि वह कल वापस जा रहे  है। और वह अपने सहयोगी के साथ अगले दिन चले गये। आडिट ख़त्म पर मामला ख़त्म न हुआ था।

एनडीडीबी की तिलहन और वनस्पति तेल परियोजना


परियोजना के तहत, अनुमोदित परियोजना का उपयोग विभिन्न राज्यों, जिला और राज्य स्तर के सहकारी संघों, तिलहन संग्रह और भंडारण, तिलहन प्रसंस्करण, विपणन, तिलहन उत्पादन वृद्धि आदि में तिलहन उत्पादकों की ग्राम स्तर की सहकारी समितियों के गठन से संबंधित सभी ख़र्चों को पूरा करने के लिए किया गया था।

एनडीडीबी के बोर्ड द्वारा अनुमोदित परियोजनाओं के लिए ओवरफ्लो खाते से खर्च किए जाते थे। इस खाते से, आईआरएमए – इरमा ( ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आनंद) जिस पर ब्याज का उपयोग संस्थान चलाने के लिए आवश्यक ख़र्चों को पूरा करने के लिए किया जाता है), एनडीडीबी की फल और सब्जी परियोजना, दिल्ली, एनडीडीबी की नमक परियोजना, I पेड़ उत्पादक परियोजना, आदि के कोष पर प्रारंभिक व्यय के लिए धन आवंटित किया गया था।


ऑडिट की यह परेशानी कहीं जा कर 1983 में ख़त्म  हुई  जब डॉ कुरियन ने यूएसएआईडी कार्यालय में यूएसएआईडी के महानिरीक्षक से मुलाक़ात की जो वाशिंगटन डीसी में अमेरिकी विदेश विभाग की इमारत में बैठते थे। मुझे साहेब के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका जाने और इस बैठक में भाग लेने का अवसर मिला। उस बैठक में एक समझौता हुआ और केवल 6000 रुपये प्रति टन के बजाय, एनडीडीबी ने परियोजना खाते में यूएसएआईडी द्वारा आपूर्ति किए गए तेल की वास्तविक लागत के बराबर राशि जमा करेगी।  उस समय तक हमें वादा किये गये तेल  का एक बहुत बडा हिस्सा प्राप्त हो चुका था था, इसलिए यह संशोधित खंड शेष तेल पर लागू होना था है जिसकी आपूर्ति की जानी थी।

सीयूसी कनाडा के साथ समझौते के बाद से, जो क्लूसा के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद हुआ, एनडीडीबी परियोजना खाते में सीयूसी द्वारा आपूर्ति किए गए तेल की लागत के बराबर राशि जमा करने के लिए सहमत हो गया।