
कुछ दिन पहले मैने “समसामयिक चर्चा” शीर्षक से एक लेख शृंखला आरंभ करने की घोषणा कर पहली कड़ी वृक्षमंदिर पर प्रकाशित भी कर दी थी । समय हो और मन करे तो इसे पढ़ने के लिये इस लिंक ( समसामयिक चर्चा- १ ) पर उँगली दबायें ।
कहते हैं न “प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः” । पहले अंक के प्रकाशन के बाद ही व्यवधान पड़ गया। प्रतिदिन लिखने का संकल्प गया तेल लेने।खैर जो हुआ सो हुआ। निर्णय लेना और पालन न करना मेरे लिये कोई नई बात नहीं है। विगत में अनगिनत बार ऐसा हुआ है !
पूज्य दादा जी श्री पाण्डुरंग शास्त्री से सुनी बात याद आ गई। किसी ने दादा जी, पूछा मन क्या है ? दादाजी ने कहा “संकल्पों विकल्पों मनः” ! किसी और ने तपाक से पूछ लिया दादा जी, बुद्धि क्या है ? दादा जी ने कहा “निश्चयात्मिका बुद्धिः” ।
मन तो संकल्प और विकल्प को तौलने, टटोलने और सोचने में लगा रहता है। पर जब मन और बुद्धि दोनों एकाग्र हो तब बुद्धि ही मन की सहायक बनती है निश्चय करवाने मे।मन और बुद्धि के दोनों के सहयोग से किया गया निर्णय ही प्रभावी संकल्प बनता है।
मेरे मित्र श्री नागर यदि इसे पढ़ रहे होंगे तो कहेंगे “यार शैलू बहुत संस्कृत श्लोक झाड़ चुके । मुद्दा क्या है यह तो बताओ? कहना क्या चाहते हो?”
दूसरे मित्र और भूतपूर्व कर्तव्य पालक डाक्टर मल्होत्रा ने यदि यहाँ तक पढ़ा होगा तो शायद कहेंगे “शैल बाबू क्यों घुमा फिरा रहे हो सीधी बात कहो न। आलस आ गया । मन न किया नहीं लिखा। फिर तुम्हारा लिखा और मेरा कहा वृक्षमंदिर पर पढ़ते ही कितने है। तुम्हें वृक्षमंदिर चलाने से पैसे मिलते हैं क्या? नहीं न । फिर क्या, फ़िक्र नाट। मन नहीं किया नहीं लिखा”।
नागर के सवाल का जबाब डाक्टर मल्होत्रा ने दे दिया। मुझे केवल यह कहना था और जिसकी तरफ़ इशारे में मैंने कहा भी है कि कि मेरे मन और मेरी बुद्धि मे ताल-मेल की कमी जो हमेशा से रही है और अब उम्र के साथ बढ़ती ही जा रही है।
बहुत बकैती कर ली अब काम की बात कर लेता हूँ।