डॉक्टर प्रेम कुमार श्रीवास्तव, जिन्हें “पीके” के नाम से जाना जाता है, एनडीडीबी के भूतपूर्व कर्तव्यपालक हैं। आजकल बैंगलोर में निवास कर रहे हैं। लेकिन उनकी पहचान केवल एक तकनीकी और प्रशासनिक अधिकारी की नहीं है; वे “डेयरी व्यवसाय गुरु” के रूप में भी जाने जाते हैं और अभी भी एक कुशल कंसलटेंट के रूप में अपने ज्ञान का प्रकाश फैला रहे हैं।

इस उम्र के पड़ाव पर, “पीके” ने अपने भीतर के कलाकार को भी जगाया है। शौकिया शायरी और व्यंग्य लेखन में उनकी रुचि ने उन्हें एक नए आयाम में प्रवेश कराया है।

यहाँ पेश हैं “पीके” के कुछ शेर। अगर आप “पीके” की अन्य रचनाओं को पढ़ना चाहते हैं और उनके साहित्यिक सफर का आनंद लेना चाहते हैं, तो यहाँ उँगली दबाएँ


तकाजे उम्र के इतने, किस-किस को आज गिनाऊँ मैं,
आईने भी मुह फेर लिए,किस ओर कहाँ छुप जाऊँ मैं?

फिरती गुलबदने गली गली,तिरछी नज़रों का खौफ नहीं,
सुनता है कौन अब बूढ़ों की,अच्छा है नज़र झुका लूँ मैं।

चार बाल चौदह कंघी, कितने असबाब जुटा डाले,
पर खाली हाथों अब अपना, ये गंजा-सिर सहलाऊँ मैं।

कहीं चेहरा भला चमकता है, आईने को चमकाने से ?
जो “उम्र-लकीरें”, दर्ज हुईं, अब कैसे उन्हें मिटाऊँ मैं?

क्या ऐनक ख्वाब बादल देंगे, औ गहरी की नींद सुला देंगे?
आँखों पे चश्मा लगे लगे, अब रोज़ रात सो जाऊँ मैं।

अब अपने नज़र नहीं आते, वो पास रहें या दूर खड़े,
ज़िंदगी नहीं, ‘सराब’ है ये, अब कब-तक दौड़ लगाऊँ मैं?

किस-किस की ओर नज़र डालूँ, औ किसकी ओर निहारूं मैं,
आसान है यारों भूल सभी, मुँह ढक के ही सो जाऊँ मैं।

कठिन शब्द:
तकाजे: दावा, जरूरत, मांग, तगादा
असबाब: साधन, समान, संपत्ति, धन
उम्र-लकीरें: चेहरे कि झुर्रियां
सराब: मृगमरीचिका, मृगतृष्णा, धोखा