दिग्विजय जी कहते हैं कि “मैं हिंदू हूं, मैं धार्मिक हूं ये मेरा नितांत निजी विषय है। अपने धर्म को मानने का तरीका किसी की परेशानी का सबब नही बनना चाहिए। वसुधैव कुटुंबकम् की भावना ही हमारे देश की असली पहचान है” !

जब हमने यह बात शिवपालगंज में सनीचर और लंगड से बताई तो सनीचर तो कुछ बोलें उसके पहले लंगड बिदक कर बोले पडेः-

“ बाबू हम्मे ई इशलोक के बारे में सज्जी कुछ पता है। बहुत ग़लत सलत अर्थ निकारते हैं सब इस का।

फिर तो लंगड पूरा श्लोक और उसका अर्थ समझाने लगे।

कहने लगेः- सुनीं बाबू “इशलोकवा हवे

अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानाम तु, वसुधैव कुटुम्बकम्।।

ऐकर अर्थ हवे: “ई हमार हवे , ऊ तुहार हवे” अइसन ते छोट दिमाग वाले टुच्चा लोग कहेलें। बुद्धिमान लोगन के ही लोग माने ला कि सारा संसारवे एक ठो परिवार है।

इहां इशलोकवा के दूसरी लइनिया ससुर लोग भुला जाला । दूसरी लाइन का कहतिआ?

कहतिआ कि “उदारचरितानाम” मने जे कर चरित्र उदार होला ओकरे लिये सज्जी दुनिया एक परिवार है”? बाबू सबके लिये नाहीं एक परिवार हवे। उदार चरित्तर वाला लोग बुद्धिमान हेलें।

बाबू हम बस इहे पूछा चाहत बाटीं कि का दुनिया में का सभ्भे लोग बुद्धिमान होलें? एक से एक लाख बुड़बक बाटें ए दुनिया मे। ठीक क़हत हईं कि नाहीं? आपे बताई महराज ?

लंगड की पीड़ा मैं समझ सकता हूँ । आख़िर श्री लाल शुक्ल के “राग दरबारी” का “वैद्य जी” हूँ मै। मैं ही क्यो हर गंजहा समझता है। गंजहा नहीं जानते कौन अरे गाँजा फूंकने वाला नहीं। शिवपालगंज के रहेवासी गंजहा कहलाते हैं। राग दरबारी में श्री लाल जी लिखते हैं,

गँजहा’ शब्द रंगनाथ के लिए नया नहीं था। यह एक तकनीकी शब्द था जिसे शिवपालगंज के रहनेवाले अपने लिए सम्मानसूचक पद की तरह इस्तेमाल करते थे। आसपास के गाँवों में भी बहुत–से शान्ति के पुजारी मौक़ा पड़ने पर धीरे–से कहते थे, ‘‘तुम इसके मुँह न लगो। तुम जानते नहीं हो, यह साला गँजहा है।’’

“कितने साल बीत गये तहसील में जो लोग मुझे नक़ल नहीं दे रहे उन्हें मैं कैसे उदार चरित का मान लूँ? लुच्चे हैं सब। मेरी लड़ाई धर्म की है । ग़लत नहीं बोलूँगा। उन्हें कैसे उन्हें बुद्धिमान कहूँ अपना बना लूँ। आप ही बतायें प्रधान जी “

सनीचर कहने लगे “लंगड सच कह रहे है। ऐसे हरामियों को हम अपने कुटुंब का कैसे मान ले !”

देखिये न वैद्य जी यह ट्विटर पर आधुनिक गुरू भी शायद ऐसा कुछ ही कह रहे हैं।