डाक्टर प्रेम कुमार श्रीवास्तव

डॉक्टर प्रेम कुमार श्रीवास्तव, जिन्हें “पीके” के नाम से जाना जाता है, एनडीडीबी के भूतपूर्व कर्तव्यपालक हैं। बैंगलोर में निवास कर रहे हैं। उनकी पहचान केवल एक तकनीकी और प्रशासनिक अधिकारी की नहीं है;
वह “डेयरी व्यवसाय गुरु” के रूप में भी जाने जाते हैं। वह एक कुशल कंसलटेंट के रूप में अपने ज्ञान का प्रकाश फैला रहे हैं।

उम्र के इस पड़ाव पर, “पीके” ने अपने भीतर के कलाकार को जगाया है।शौकिया शायरी और व्यंग्य लेखन में उनकी रुचि ने उन्हें कृतित्व के एक
नए आयाम में प्रवेश कराया है।

 

पीके इस कहानी का सूत्रधार अपने एक जीवंत घटना क्रम को उसके अपने उसी परिवेश में दर्शाते हुये व्यक्त कर रहे हैं । यह कहानी पीके के जीवन की एक स्मरणीय काल-खंड की है। वह स्वयं इस कहानी में कभी भी सजग पात्र नही रहे, परंतु मुंशी साहब (बदला नाम) की दिनचर्या पीके को उत्सुकता प्रदान करती रही है। कहानी में पात्रों के नाम बदले गए हैं। फोटो असल न होकर केवल संदर्भ स्तंभन के लिए है। 

 


 

बात उन दिनों की है जब कल्लू अपने बाउजी, जिन्हें सभी बाउजी कह के बुलाते थे, के साथ पूर्वाञ्चल यूपी के एक कस्बे में रह कर स्कूल में पढ़ा करता था। पढ़ाई तो चल रही थी, परंतु उस व्यवस्था में रहकर अच्छी तरह पढ़ पाना कल्लू के लिए एक कठिन काम लग रहा था, जिसका ज़िक्र वो हमेशा मुझसे करता रहता था। बात करीब 1969-70 की है, जब कस्बों की ज़िंदगियाँ अत्यंत बेसिक स्तर की हुआ करतीं थीं। आप सोचेंगे इसमें क्या खास बात है? बहुत से लोग ऐसा करते हैं, अपने बाउजी के पास रहकर पढ़ाई करते हैं। कल्लू ने किया तो क्या ख़ास बात है? जी हाँ इसमें कई ख़ास बातें हैं, पहले तो इस कहानी के जितने भी किरदार हैं उन सबके नाम अजीबो-ग़रीब होते हुये भी सब अपनी-अपनी विधा में पारंगत हैं। हम सबको पता है कि पूर्वाञ्चल के ग़रीब और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों में नाम कुछ अजीबो-ग़रीब होते हैं। लोग ग़रीब को उसके असली नाम से इतना नहीं पुकारते जितना कि उसके “पुकार” नाम से। हालांकि मुझे कल्लू के नाम पर सख़्त एतराज है, पता नहीं क्यूँ कल्लू का नाम कल्लू रखा गया था, गोरा भभूक्का तो था, छरहरा सुंदर अलग से। इस कहानी में किरदारों के केवल नाम ही नहीं बल्कि काम भी अजीबो-ग़रीब हैं और उनका परिवार और उनके हुनर तो माशा-अल्लाह, क्या कहने।

 

एक था “लखड़ू” जिसे लोग “लखड़ूआ” कहते थे, पूर्वाञ्चल में नाम के आगे “वा” या “आ” लगा देने से प्यार बढ़ जाता है। आप शराफत से बुलाएँ तो शायद एक बार इंसान न बोले पर “आ” या “वा” लगा कर पुकारें तो तुरंत बोल देगा। बच्चा चाचा अपने नौकर को जब भी “गुन्नी बाबू” कहके प्यार से पुकारते तो वो सुनता नहीं था, फिर “ऐ गुन्नी” पर आ जाते, फिर भी नहीं सुनता था, फिर जब “हरे गुन्नीया” के साथ कुछ चटकार भरी गाली का प्रयोग करते तो “आया मालिक” कह कर दौड़ा हुआ आता था। इसी प्रकार लखड़ूआ भी असली नाम से नहीं बोलता था हालांकि उसके और भी कई नाम थे, जाने दें, इस बात को दफ़ा करें।

 

हाँ तो हम भी यहाँ प्यार से कल्लू को कलुआ और लखड़ू को लखड़ूआ कहेंगे, अच्छा लगता है, प्यार छलकता है। लखड़ूआ के माँ का नाम था कजरी, क्यूँकि उसकी आँखें शुरू से कजरारी थीं, रंग गेहुआँ था बदन छरहरा था। लगता नहीं था की उसके इतने बच्चे हैं। शायद अपने परिवार की सबसे सुंदर बेटी रही हो, तभी उसका नाम कजरी रखा गया होगा। स्थानीय मान्यता है की कजरी नाम रखने से बच्चे को नज़र नहीं लगती। उस समय पूर्वाञ्चल यूपी में पुकार के नाम इसी प्रकार से किसी न किसी तर्क के आधार पर रखे जाते थे, एक कोई छोटा सा तर्क मिला नहीं कि बस नाम रख दिया। क़रीब-क़रीब हर परिवार में एक छोटू होता है। कहीं कहीं तो एक ही माँ-बाप के यहाँ नन्हीं और छोटी दोनों होतीं हैं। शनिवार को जन्मे तो शनीचरी या शनीचरा, मंगल को जन्में तो मँगरी या मंगरुआ, घुरऊआ, कतवरुआ, फेंकनी, फेंकना, लुटौवना, आदि। चेचक के दाग हों तो चित्तू, सफ़ेद दाग हों तो चितकबरा, दाँत ऊबड़-खाबड़ हों तो खबड़ा, चेहरे पर नाक थोड़ी चपटी रह गयी या बचपन में मालिश कर के उठाई नहीं गयी तो पहाड़ी, भोटिया, नेपाली या चीनी नाम रख दिया जाता। वो इलाका ऐसे नामों से भरा पड़ा है। “नाम में क्या रखा है”, सेक्सपियर कह तो गए थे, परंतु यहाँ नाम और तर्क में सामंजस्य देखते बनता है। यहाँ नाम का अर्थ चरितार्थ होता दिखता है। मुझे पूरा विश्वास है सेक्सपियर कभी पूर्वाञ्चल यूपी आये होते तो उनके लेखन में यहाँ के कमाल के नामों का प्रयोग ज़रूर मिलता, पर इसे भी यहीं छोड़ें आगे चलते हैं। 

 

 

लखड़ूआ बड़े होकर कुछ खास नहीं कर पाया, बस उसे एक पैडिल रिक्शा (उस समय वही रिक्शा होता था) मुंशी साहब ने दिला दिया और वो वही चलाते हुये अपनी शादी होने का इंतज़ार करने लगा था। मुंशी साहब तहसील कचहरी में अर्जीनबीस थे और देखेने में गोरे, लंबे और रसुखदार थे, हाँ उनकी आँख में थोड़ी गड़बड़ी थी, पता नहीं चलता था कि किधर देख रहे हैं, किससे बात कर रहे हैं। 

 

लखड़ूआ की शादी इसलिए नहीं हो रही थी कि कहाँ से अपने परिवार को खिलाएगा? परंतू कल्लू को लगता था कि यदि उसकी शादी हो जाती और कोई मुंशी सहब जैसा मेहरबान टकरा जाता तो लखड़ू को तो क्या उसकी बीबी और भी कई लोगों को पाल पोस सकती थी। जैसे कजरी कई घरों में खाना बना और बर्तन माँज कर तनख्वाह और बख्शीश से अपने 4 बच्चों और निठल्ले पति को पाल रही थी। लखड़ूआ उसका सबसे बड़ा बेटा था । लखड़ूआ अभी जवान हो ही रहा था कि मुहल्ले में ये मशहूर हो गया था कि वो मुंशी साहब की देन है। ज़ाहिर है उसकी माँ कजरी मुंशी साहब के यहाँ खाना बनाने का काम करती थी और मुंशी साहब खाने के साथ-साथ मालिश करवाने का शौक भी रखते थे। तब पूर्वाञ्चल यूपी में मालिश कराने का शौक बहुत था, आज भी हो शायद। जो लोग थोड़े भी खाते पीते घर के हैं, वो ये शौक ज़रूर पालते हैं। अब मालिश भी तो कई प्रकार की होती है। जो धूप में हो और जो मच्छरदानी में, इनमें फर्क तो होता है। आज भी 68-69 साल की उम्र में मुंशी साहब मालिश कराने का शौक पाले हुये थे। मुंशी साहब मच्छरों के डर से हमेशा मच्छरदानी में सोते थे, तब गुड नाइट बाज़ार में नहीं आया था। जब भी लखड़ूआ को पैसों की ज़रूरत होती वो मुंशी साहब की मालिश करने आ जाया करता था। जब तक लखड़ूआ नहीं जन्मा था और 12-15 साल का नहीं हो गया था, मुंशी साहब की मालिश छुपते-छुपाते कजरी ही कर दिया करती थी। लखड़ूआ ने आगे चलकर मुंशी साहब की मालिश करने का जिम्मा संभाल लिया था। पढ़ाई वगैरह की प्रथा उसके यहाँ थी ही नहीं। इसी प्रकार से समय बीत रहा था। मुंशी साहब के साथ उनके साथी शंकर बाबू जो करीब अब 70 साल के थे, मजे से जीवन बीता रहे थे। इस घर में कोई किसी का रिश्तेदार नहीं था। सब संयोग वश मिल गए थे या शायद तहसील कचहरी ने सबको एक जगह लाकर ईकट्ठा कर दिया था।

 

शंकर बाबू के परिवार का कोई भी नहीं था, वो अकेले रहते थे। बहुत अक्खड़ स्वभाव के आदमी थे। 20 जुलाई सन 1969 को जब नील आर्मस्ट्रांग चाँद पर उतरे और वहाँ से मिट्टी लेकर धरती पर वापस आए तो पूरा संसार उनकी प्रशंशा कर रहा था, परंतु शंकर बाबू हत्थे से उखड़ गए थे, सख्त गुस्से में थे, उनके विचार से ये सरासर चोरी और धोखाधड़ी का मामला था। वे कहते मिट्टी केवल धरती पर पायी जाती है, चाँद से जो मिट्टी लेकर आए हैं, वो यहीं से छुपाकर ले गए थे और आकर बता दिया कि चाँद से लाये हैं। ये बस एक फरेब है और कुछ नहीं। परंतु शंकर बाबू ताश खेलने में माहिर थे, ऐसा समझें की मुंशी साहब का किराए पर लिया ये मकान एक चंडूखाने से कम न था। मुंशी साहब का एक बेटा था जो कोई काम धाम नहीं करता था परंतु उसका भरा-पूरा परिवार था, गाँव में रहता था और उसके परिवार का खर्च मुंशी साहब ही उठाते थे। जब कभी मुंशी साहब का बेटा उनसे से पैसे लेने आता था, कजरी अपनी बड़ी बेटी को काम पर भेजना बंद कर देती थी, जिसका असल कारण कलुआ और बंटू को पता था। बंटू पड़ोस में रहता था। 

 

कचहरी भी क्या थी तहसील की कचहरी, जिसमें कमाई केवल रजिस्ट्री, बैनामा, रेहन, नकल, छोटे मोटे मुक़द्दमा आदि से ही होता था। तहसीलदार साहब कचहरी के हाकिम हुआ करते थे। उनके नाम पर ही उस कचहरी से सैकड़ों जनो के घर में चिराग और चूल्हे जलते थे। कचहरी के मुलाज़िम तो केवल 30-40 ही रहे होंगे, परंतु कचहरी के मुलाज़िमों और अन्य जनो का घर केवल तनख़्वाह के भरोसे नहीं चलता था, नज़राना (घूस) के हिसाब से चलता था, आज भी चलता है। जिस दिन 2 कित्ता बैनामा मुंशी साहब के चबूतरे पर होता, घर में जश्न मनता था। फरीद चिकवा को गोश्त पहुँचाने का ऑर्डर दिया जाता था, दावत का सारा इंतेजाम कजरी पर होता था। कजरी और उसकी बेटियों को बख्शीश मिलता था। कजरी की तीन बेटियाँ थीं, जिसमें बुधिया सबसे बड़ी थी जो परिवार से अलग दिखती थी, उसकी कद काठी अच्छी थी। कजरी का 6 व्यक्तियों का परिवार मुंशी साहब के रहमो-करम पर ही पलता था। मुंशी साहब खाने के बहुत शौकीन थे और हर-फन-मौला रह चुके थे, अब बुढ़ापा आ तो गया था परंतु जैसे बंदर गुलाटी मारना नहीं भूलता, वे भी नहीं भूले थे, हाँ अब वो ज़्यादा उछल-कूद नहीं कर पाते थे। जब कलुआ वहाँ पढ़ने आया था तब लखड़ूआ और बुधिया जवान हो गये थे और यही कलुआ के हवाले से कजरी के परेशानी की वजह थी। लखडुआ पढ़ा लिखा तो था नहीं परंतु उसे कहीं काम पर लगाना था और बुधिया तथा उसकी छोटी बहन संवरी को काम के साथ साथ जीने का सलीका भी सिखाना था। लखड़ूआ की तीनों बहने एक से बढ़कर एक चंचल थीं, घर-घर काम करके कमासुत बेटियाँ कजरी का नाम रोशन कर रहीं थी। बस लखड़ूआ की शादी नहीं हो रही थी कि बेटियों में से 1-2 की हो जाए तब लखड़ूआ का नंबर आए। कजरी का घर मजे में चल रहा था, उसका पति कुछ काम-धाम नहीं करता था, वो घर बैठे बस आराम करता था, शराब तो उसके बश की बात नहीं थी, गाँजा, भांग,अहमद हुसैन ज़र्दे के पान और सिगरेट से अपने शौक पूरा करता था, मस्त रहता था, ठीक वैसे ही जैसे की कजरी अपने काम में और लड़कियां अपनी अपनी दुनियाँ में।

 

जिस दिन भी कचहरी बंद रहती थी उस दिन कजरी की परेशानी बढ़ जाती थी। मुंशी साहब के दरवाजे पर ताश जमता था जो दिन भर चलता था, उस दौरान कजरी और बुधिया का काम और कमाई दोनों बढ़ जाती थी। बीच बीच में पकौड़ों और अन्य भोज्य सामाग्री का इंतेज़ाम होता था। हालांकि ताश के खेल का अंत आपसी वाक-युद्ध से होता था, शंकर बाबू और मुंशी साहब में घमासान वाक-युद्ध होता था। युद्ध के समय दोनों सुरक्षित दूरी बनाए रहते थे-कि तुम बेईमान हो, नहीं तुम बेईमान हो। पर शायद थे ये दोनों ही बेईमान, दोनों इशारे करते और चले गए पत्ते फिर से चल देते, पकड़े जाने पर गालियों की बौछार होती। परंतु सांझ होने तक दोनों कजरी के साथ बैठ खिल-खिलाया करते थे। बिलकुल महाभारत के कुरुक्षेत्र जैसा माहौल था यहाँ, दिन ढले युद्ध समाप्त और फिर गलबइयाँ, अगले दिन फिर से कचहरी।

 

ये सिलसिला कई सालों से चल रहा था, उसी में कजरी का परिवार 2 से 6 हो गया था। कजरी का मुंशी साहब से कब मुलाक़ात हुई, कैसे हुई, आज वहाँ रहने वाले नहीं जानते थे। कलुआ की एंट्री 1969 की है जब कजरी का परिवार फलफूल चुका था। कलुआ के आ जाने से कजरी के अच्छे भले खिलते जीवन-तरंग में खलल पड़ गया था। जिस दिन भी कलुआ स्कूल में छुट्टी होने पर घर पर ही रह जाता था तो कजरी की सारी इंद्रियाँ सतर्क हो उठतीं थीं, एक तो मनमाना करने को नहीं मिल पाता था दूसरे बुधिया की चिंता सताती। इस घर का निज़ाम तो मुंशी साहब और शंकर बाबू के हाथ में था, कलुआ के बाउजी तो अपने और कलुआ के रहने खाने का पैसा दे दिया करते थे। शंकर बाबू कचहरी में स्टाम्प पेपर बेंचा करते थे। बाउजी भी मुंशी साहब के साथ कचहरी में काम किया करते थे। कजरी सबका खाना बनाती थी और घर का रख रखाव भी करती थी। कलुआ के यहाँ आकर रहने से उसका काम बढ़ गया था, ऐसा कजरी को लगता था, तो फौरन उसने अपनी तनख्वाह में 15 रुपये बढ़ाने का ऐलान कर दिया, उन दिनों 15 रुपया कुछ ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं होता था। कई लोगों की आधे माह की तंख्वाह हुआ करती थी। बाउजी को पैसे बढ़ाने पड़े कजरी के तंख्वाह में। फिर भी कजरी खुश नहीं थीं, क्यूंकी उसे कलुआ का यहाँ रहना पसंद ही नहीं था, पता नहीं क्यूँ? अब ऐसा भी नहीं की कलुआ को असल कारण पता न हो? पर ठीक है, इसे भी यहीं छोड़ देते हैं।

 

मुंशी साहब के घर के आस पास कई अन्य किरदार भी रहते थे जैसे सूरदास (सूरे), बंटू, सोमा, मुस्तक़ीम, आदि। सूरे नेत्रहीन थे (उनका और कोई नाम भी था परंतु सभी उन्हे सूरे ही कहते थे) और ये सभी किरदार कलुआ के मनोरंजन के साधन मात्र थे, सूरे कुछ काम तो करते नहीं थे, नाश्ता आदि करके नित्य धूप में बैठ जाया करते थे और गप्पें लगाते थे। उन्हे किसी के अपने पास आने पर उसे बिना छूये, बिना आवाज सुने पहचान लेने की महारत हासिल थी। पड़ोस का बंटू नाम भर के लिए ही सही, हाईस्कूल में पढ़ता था, सोमा के अपने माता पिता नहीं थे तो वो बंटू के यहाँ रहकर उसी हाईस्कूल में पढ़ता था, वो सीधा सदा लड़का था, जो इस चांडाल-चौकड़ी में सबके लिए हंसी का पात्र था। परंतु ईश्वर को शायद कुछ और ही मंज़ूर था कि उसके नंबर अच्छे नहीं आते थे। बंटू की अपने पिता भगवत से बिलकुल भी नहीं पटती थी। भगवत हमेशा बंटू की तलाश में रहते थे और बंटू उनसे छुपने के, ये चूहे बिल्ली का खेल चलता ही रहता था। भगवत गन्ने के मिल में पर्ची बांटेने का कम किया करते थे, घर से दिन भर ग़ायब रहते थे और बंटू आवारागर्दी करते हुये बुधिया के फिराक में रहता था। बंटू की आँख बुधिया पर लगी थी पर उसकी बात बन नहीं पा रही थी, परंतु वो अपने ध्येय की प्राप्ति में लगा रहता था। बंटू एक हाथ से लुल्ल था, बचपन में खेलते समय उसका हाथ जो टूटा तो फिर ठीक से जुड़ नहीं सका, लटक गया। बंटू कहता कि बुधिया से महक आती थी। आती होगी वो घर-घर काम जो करती थी, परंतु कल्लू को ऐसा कभी नहीं लगा। बुधिया उसे अच्छी लगती थी। 

 

इन किरदारों के अलावा बबुआ थे लल्लन थे बशीर और हनीफ़ आदि भी थे, जो कचहरी में यूँ ही दिन भर घूम-फिर के कुछ न कुछ कमा लिया करते थे। हमारे संस्कृत के पंडित जी ने एक बार हमें कचहरी का अर्थ बताया था; कच= रोंवां और हरी= हर लेना, जहां इंसान का रोवां भी हर लिया जाता हो उसे कचहरी कहते हैं, तो ये चारो मुस्तक़ीम के साथ कचहरी में रोवां हरने का काम किया करते थे। लल्लन के यहाँ कूंवे पर कलुआ बाल्टी-डोरी लेकर नहाने जाता था, क्यूंकी मुंशी साहब के यहाँ हैंड-पंप नहीं था और उन दिनों उस कस्बे में पानी सप्लाई से नहीं आता था। हैंड-पंप या कूंवे पर नहाया-धोया जाता था। मुंशी साहब के घर में कोई गुसलखाना नहीं था। उस समय ग़ुसलख़ाने का रिवाज घरों में नहीं बल्कि घर से बाहर रहा करता था, पर यहाँ तो वो भी नहीं था। सभी लोग लोटा लेकर खेतों की उर्वरता बढ़ाने जाया करते थे और कूंवे पर नहाया-धोया करते थे, घर में पीने के लिए पानी भी कूंवे से ही आता था। यहाँ की दिनचर्या बहुत सादी थी, परंतु उसे इन किरदारों ने दिलचस्प बना रखा था। पढ़ने में सबसे तेज़ कलुआ था, इसलिए सब उसका लोहा मानते थे, उसके पास ज़्यादा घुसते नहीं थे। कलुआ अक्सर हमारे पास कुछ प्रश्न पूछने या समय बिताने आ जाया करता था, उसी समय वो ये सब किस्से हमें सुनाता था। मुंशी साहब भी कलुआ को बहुत मानते थे।

 

एक दिन कलुआ ने मुंशी साहब को सुझाया की आप अब 70 के होने जा रहे हैं तो हम सब मिलकर आपका जन्मदिन मनाएंगे। बात तय हो गयी कि उस दिन केक काटा जाएगा, दावत होगी और मंडली के सभी लोग बंटू, सूरे और कजरी का पूरा परिवार एक साथ खाना खाएँगे, गोश्त बनेगा और मिठाइयाँ हरिसरन हलुवाई के यहाँ से आयेगीं। मामला यहाँ फंस गया कि “केक” आयेगा कहाँ से? 1970 में उस कस्बे में कभी किसी ने केक देखा ही नहीं था, कलुआ ने भी केक के बारे में केवल अपने अमीर दोस्त केडिया, जो अपनी कार में स्कूल आता-जाता था, से बस सुना ही था। सबने पूछा ये केक क्या होता है? टाफी कंपट लकठा, जलेबी, बताशा तक तो लोग जानते थे। मर्हौरा में (गोपालगंज के पास) एक टाफ़ी बनाने वाली मोर्टन की फैक्ट्री थी। परंतु केक कैसे आएगा? यह एक बड़ा प्रश्न था। केक लाना कलुआ का काम था, वो भला केक कहाँ से लाता, वो भी तो अभी 10वीं में ही पढ़ता था। बाउजी ने कलुआ को बुलाया, और पूछा केक कैसा होता है। किसका बनता है, खाने में कैसा होता है? आदि। कलुआ ने केक की व्याख्या की। केक गुदगुदा होता है, मीठा होता है, गोल गोता है, उसे काट सकते हैं, कई लोगों में बांट कर खाया जाता है, यह जमन्दिन पर बनाया जाता है और काटा जाता है। कलुआ को केक उसके केडिया दोस्त ने एक बार खिलाया था। कलुआ भूल गया कि यहाँ केक कौन लाएगा, चलो मोमबत्ती तो माधो की दुकान से ले आएंगे, परंतु केक? अब बात आई केक बनाने की तो बाउजी ने तरकीब सुझाया कि सूजी के हलवे का केक बन जाये और उसे अच्छे से सजाया जाय। कजरी ने भी केक किसी के यहाँ खाया था, उसने बीड़ा उठाया हलवा केक बनाने का, हलवे का केक बना, उसे सजाया गया, जन्मदिन का जश्न मना। दावत हुई गोस्त के साथ पूड़ी कचौरी और मिठाइयों की। सभी लोगों के साथ लखड़ूआ और उसकी बहन सँवरी और बेझरी ने भी खूब मजा किया। मुंशी साहब और शंकर बाबू देसी दारू में मस्त, कजरी काम करने में मस्त, सभी कहीं न कहीं मस्त थे परंतु कलुआ दुखी था, बुधिया कहीं गायब थी। इसी आपाधापी का फायदा उठाकर पता नहीं कैसे बुधिया को बंटू ने बहला लिया। जबतक कजरी को इसका भान हुआ कि बुधिया नहीं दिख रही है, कहाँ गयी, बंटू दाँत चियारते दावत में प्रगट हुआ। दावत के बाद सभी अपने घर चले गए। घर जाकर बुधिया की मजबूत कुटाई हुई। दूसरे दिन पता चला कि कजरी की शिकायत पर भगवत ने बंटू को बहुत पीटा था। सुबह बंटू से जब मुलाक़ात हुई तो उसने कराहते हुये कलुआ को बताया “यार मार तो रोज़ ही खाते रहते हैं मगर बुधिया से मिलने का मजा कुछ और ही था”। बंटू कराह रहा था परंतु उसके चेहरे की मुस्कान बता रही थी कि वो बहुत खुश था, अपना लक्ष्य पाकर। कई दिनो बाद बुधिया भी दिखी जो सामान्य सी लग रही थी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था, हाँ कलुआ बहुत उदास दिखा। 

 

Disclaimer: कहानी सत्य घटना पर आधारित है, पात्रों के नाम बदल दिये गए हैं, घटना-क्रम की परिधि बढ़ा दी गयी है। किसी भी व्यक्ति से किसी भी पात्र या घटना की साम्यता मात्र एक संयोग ही होगा। कहानी में सजीवता बनाए रखने के लिए यथार्थ वातावरण का प्रयोग किया गया है। लेखक की मंशा किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं, बल्कि कहानी को उसकी जीवंतता के साथ प्रस्तुत करने की एक कोशिश मात्र है।