पढ़ाई; गाँव, नई दिल्ली और फिर गोरखपुर !

ठीक से याद नहीं पर बात पिछली सदी के सन छप्पन या सत्तावन की है। मेरे गाँव में पहला स्कूल मिठउआ आम के नीचे शुरू हुआ था। मै पाँचवीं उसी स्कूल से पास हुआ था।

बाबूजी तब तक उत्तर प्रदेश सरकार की कृषि विभाग की सेवा से निकल केंद्रीय कृषि मंत्रालय के कृषिभवन के प्रसार निदेशालय मे एक्सटेंशन असिस्टेंट पद पर काम कर रहे थे। मेरी छठी और सातवीं की पढ़ाई टेंट वाले स्कूल “गवर्नमेंट एंग्लो-वर्नाक्युलर स्कूल, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली में हुई। आठवीं से मैं फिर गोरखपुर आ गया ।

रेडियो सुना पहली बार नई दिल्ली मे

तब हमारे घर पर रेडियो नही होता था। दिल्ली में पड़ोसियों के घरों से रेडियो बजने की आवाज़ें जरूर आती थी। हम सुनते भी थे। विशेषत: बुधवार को अमीन सायानी की रेडियो सीलोन से प्रसारित बिनाका गीतमाला । तब तक हम सिनेमा भी नहीं देखते थे । साल में एक सिनेमा हो जाये तो बड़ी बात होती थी।

एक दो साल बाद सन 1960 मे जब मैंने दसवीं यूपी बोर्ड से पास की तब बाबूजी नीलोखेडी में एक्सटेंशन एजुकेशन इंनसटिट्यूट में काम कर रहे थे। तब जब मैं गर्मी की छुट्टी में अम्मा बाबूजी के पास नीलोखेडी गया तब बाबूजी ने मर्फी रेडियो ख़रीदा था।

रेडियो बजा पहली बार गाँव पर

तो बात ऐसी थी कि मै गर्मी की छुट्टी में उस साल गाँव पर आया था । तब मैं आठवीं या नवी मे पढ़ रहा था गोरखपुर में 1958 या 1959 की बात है। मैंने ज़िंदगी में तभी पहली बार रेडियो चलाया/ बजाया था । उसके पहले सिर्फ़ देखा और सुना था और छुआ भी न था।

पट्टीदारी में श्याम नारायण बाबा बाबूजी से बड़े थे और पढ़े लिखे थे । चीनी मिल में नौकरी करते थे। पर दसवीं पास थे या नहीं मुझे याद नहीं। हम उन्हें चिन्नी बाबा कहते थे। बाबूजी को बहुत मानते थे। जब चीनी मिल में सीज़न की लंबी छुट्टी होती , श्याम नारायण बाबा गाँव पर ही रहते थे। हमारे घर “पिपरेतर” अक्सर रोज़ सुबह आ जाते थे । खाना खाने अपने घर चले जाते थे।बड़ा स्नेह था लगता ही नहीं था कि वह हमारे घर के नहीं हैं । पान खाते थे। मुस्कुराते रहते थे। भइआ और बाबा सब से बहुत लगाव था।

ए शैल बैटरिया लगउले बाट !

एक बार छुट्टी में गाँव आये तो मिल का रेडियो ले आये। बड़ा सा डब्बा बांसगांव से डेढ़ कोस सिर पर रखे चल कर एक आदमी रेडियो गाँव लाया आगे आगे श्याम नारायण बाबा सफेद धोती और धारी दार क़मीज़ पहने चले आ रहे थे। पर अपने घर न जाकर सीधे हमारे घर पर आये । रेडियो वही रखवाया। मैंने रेडियो पहली बार देखा।आनन फ़ानन दो बांस काट कर लाये गये और एंटेना के दोनो सिरे बांसों पर बांध कर दुआरे पर चौगान में गाड़ दिये गये । फिर हुआ इंतज़ार सूरज ढलने का । शाम हुई नहीं कि काफ़ी लोग जमा हो गये कुछ लोग चारपाई पर कुछ मचिया या मूँज के बने बीड़ा पर या ज़मीन पर आसन जमा बैठ गये। चिन्नी बाबा ने कहा “ शैल रेडियो चलइहें “ ।

शैल गर्व से फूल रहे थे । रेडियो के बड़े डब्बे के साथ एवर रेडी की बैटरी का अलग से छोटा डब्बा भी था। अब हड़बड़ी में बैटरी का तार लगा नहीं रेडियो से और मैं रेडियो के बड़े नाब घुमा घुमा रेडियो स्टेशन ढूँढ रहा था। रेडियो से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। चिन्नी बाबा बोले “ ए शैल बैटरिया लगउले बाट ?


मेरे पितामह, विश्वनाथ सिंह (भइया), मेरा चचेरा भाई विनय, मेरे श्याम नारायण बाबा ( (चिन्नी बाबा) फ़ोटो 1971 मे ली गई थी

तब मुझे ध्यान आया और रेडियो और बैटरी को जोड़ा ही न था। जब किया और नाब घुमाया तब खडखड की आवाज़ आने लगी फिर अचानक धीरे और फिर ज़ोर से साफ़ आवाज़ आई। कोई शास्त्रीय संगीत गा रहा था। “बस बस अब छोड़ द मत हिलइह” चिन्नी बाबा बोले । कुछ देर बाद जब गाना ख़त्म हुआ उदघोषक की आवाज़ आई। “ यह आकाश वाणी का लखनऊ केंन्द्र है” ! सब के चेहरे चमक रहे होंगे पर रात के अंधेरे में दिखाई नहीं दे रहे थे पर विज्ञान के इस अजूबे “रेडियो” का गाँव पर पिपरेतर के दरवाज़े पर बजना अचंभित करने वाली घटना थी । फिर तो हर शाम भीड़ लग जाती । समाचार, गीत शास्त्रीय संगीत सब सुने जाते। शास्त्रीय संगीत समझ में तो शायद किसी के भी नहीं आता था पर सुना खूब जाता। कोई कुछ बीच में बोले तो दूसरे चुप करा देते। बाद में चुटकियाँ ली जाती। एक दूसरे की नासमझी पर । न जानते हुये सिर्फ़ मान कर कि संगीत आनंददायक है भिन्न रागों की व्याख्या का प्रयत्न भी होता था।