
क से कबूतर, क से कमल, क से किताब
बात उस जमाने की है जब मुझे केवल बोलना आता था । पढ़ना लिखना नहीं। ज़ाहिर है उम्र तब बहुत कम थी । अब यह सब बताने की क्या ज़रूरत ? जीवन के संध्याकाल में जब अक्सर यादें भी याद आ कर भूलने लगती हों तब यादों को याद कर उन्हें बताने की प्रक्रिया मे वह और उभर कर आती है।मैं उन्हें लिपिबद्ध भी कर पाता हूँ ।औरों के लिये नहीं तो अपने लिये ही सही ! जो है सो है!
शायद पाँच या छ साल का था। स्कूल नहीं था गाँव में। तहसील से कुछ सरकारी अधिकारी आये, स्कूल खोलना था। बाबू देव नारायण सिंह ( बुढवा बाबा, मेरे प्रपितामह) ने उन्हें सलाह दी कि स्कूल सड़क से लगी हमारे खलिहान के पास की ज़मीन जहां अखाड़ा हुआ करता था और अब भी है, उसके दक्षिण पश्चिम कोने पर स्थित मिठाउआ आम के नीचे से शुरू हो । बस शुरू हो गया इस्कूल और शुरू हो गई मेरी पढ़ाई ।
शिक्षा पहली से पाँचवीं तक वहीं बेसिक प्राइमरी पाठशाला चतुर बंदुआरी में हुई। केवल एक साल जब मैं तीसरी में था बाबूजी अपने पास ले गये देवरिया । बाबूजी तब देवरिया में ज़िला कृषि अधिकारी के पद पर तैनात थे। तब वहाँ मारवाडी स्कूल गरुडपार मे मेरी पढ़ाई हुई । देवरिया में ही मुझे सिर पर ब से बंदर ने काटा था । भ से भूकंप का अनुभव भी वहीं पहली बार हुआ
क ख ग घ … वर्णमाला मैंने अपने गाँव में मिठउआ आम के पेड़ के नीचे ज़मीन पर बैठ कर सीखी। लकड़ी की काली पट्टी पर जिसे दिये की कालिख लगा माई, अम्मा, मझिलकी मम्मू की शीशे की चूड़ी से रगड़ कर चमकाया जाता था। नरकंडे की क़लम से खडिया को पानी में घोल कर बनी स्याही से लिखा जाता था। नरकंडा और खडिया गाँव में उपलब्ध थे।एक घर बढ़ई भी गाँव में थे ।अब भी हैं।
जब मेरी पहली मुलाक़ात क से हुई तब जाकर पता चला कि क से कबूतर और क से कमल और भी बहुत से शब्द है । वैसे जब मैने लिखना पढ़ना सीखा तब तक मैंने कबूतर या कमल नहीं देखा । किताब थी या नहीं ठीक से शायद नहीं। थी तो कैसी थी वह भी याद नहीं । शायद उसी किताब में कबूतर और कमल का फ़ोटो देखा हो। प से पंडुख या पंडुखी तो बहुत थी गाँव पर । पर कबूतर से ठीक से पहचान शहर आ कर ही हुई। बरसात के बाद उनवल से बांसगांव वाली कच्ची सड़क के दोनों ओर के कुछ गढ्ढों में पानी भरा रहता था। कमलिनी के फूल पहली बार मैंने शायद उसी में देखे होंगे।
मौलवी सुभान अल्लाह और बाबू सुरसती सिंह पढ़ाते थे । बाद में हंसराज मास्टर साहब आने लगे । मौलवी साहब की चेक की क़मीज़ सफ़ेद धोती, काली पनही, पहनते थे । छाता हमेशा साथ रहता था। जब किसी को दंड देना होता वह छतरी बड़े काम में आती थी। कुंडी गले में लगा कर खींच कर उलटी तरफ़ से दो चार बार पिछाडा पीट दिया जाता था । पर मुझे कभी मार नहीं पड़ी। आख़िर हमारे पेड़ के नीचे स्कूल शुरू हुआ था ।
बहुत कुछ याद नहीं है पर मिठउआ पेड़ के आम की सुगंध और मिठास भरा ललाई लिये गूदा अभी भी नहीं भूला है ।
कुछ किताबें थी घर पर। रामचरित मानस, कल्याण के बहुत से अंक, श्रीमद् भगवद्गीता, गोरखपुर की क्षत्रिय जातियों का इतिहास आदि आदि। गीता पर पढ़ना विष्णु राव पराड़कर द्वारा शुरू किये गये दैनिक “आज” से ही शुरू हुआ होगा। दिल्ली के टेंट वाले स्कूल में जब मै छठवीं में पढ़ रहा था, मेरे बाबूजी ने नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक “ ज्ञान सरोवर” जिसका मूल्य एक रुपया था जन्मदिन पर भेंट की थी। दिल्ली की बात है । और यह तब की बात है जब हमारे यहाँ जन्मदिन शहरों में ही मनाया जाता था, मेरे गाँव जैसे गाँवों में तो क़तई नहीं।
क से काका भी होता है ।पर काका नाम ज्ञान सिंह था । काका के बारे में ज्ञ शीर्षक के अंतर्गत लिखा जायेगा।
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
ख से ख़रबूज़ा, ख से ख़रगोश , ख से ख़लील
ख़रबूज़ा तो नहीं पर “फूट” जिसकी रिश्तेदारी ककड़ी परिवार में रही होगी देखा था । पांडे लोगों के घर के पीछे ऊत्तर की ओर वाले खेत में मकई बोई जाती थी । मचान भी होती थी चिरई उड़ाने के लिये । बड़ा अच्छा लगता था मचान पर बैठ चारों ओर देखने पर । ऐसा लगता था जैसे मै सारी दुनिया देख रहा हूँ।
ख़रबूज़ा बहुत बाद में जब भइया (मेरे पितामह ) भटौली बाज़ार से आया तो देखा और फूट की याद आ गई।
फूट नाम शायद इसलिये पड़ा होगा कि बड़ा हो कर फूट जाता था।
ख से खस्सी भी होता है। खस्सी का मांस जिसे कलिया या गोश्त या बाद में मीट भी कहने लगे भटौली बाज़ार से लाया जाता था।
भटौली बाज़ार से ख़रीद कर लाया कलिया या खस्सी का गोश्त ही शायद मुझे पहले पहले खिलाया गया होगा । वैसे गाँव में ख से ख़लील मियाँ के यहाँ भी कभी कभी बाबू लोग खस्सी कटवाते थे । मनौती माने गये बकरे की बलि की प्रथा आज भी है । यह घर के बाहर दुआरे पर एक किनारे में किया जाता था।
ख से ख़रगोश जब १९६८ मे आणंद में नौकरी शुरू की । १९७० मे जब एनडीडीबी कैंपस बना हमने से कुछ लोग रहेवासी बने तब एक आइएएस अफसर डेपुटेशन पर आये ।सहकर्तव्यपालक बने, मित्रता हुई जो अब भी बरकरार है। हम दोनों की तब शादी नहीं हुई थी। वह तब तीन बेडरूम वाले बंगले में रहते थे । मै बाइस कमरों वाले हास्टल का नया नया वार्डन बनाया गया एक सोने का कमरा, बैठकी और स्नानागार एवं शौचस्थान मेरे हिस्से आये। मेरे मित्र के पास दुनाली बंदूक़ थी । काली रंग की फ़ियेट कार और आलिवर नाम का छोटा सा कुत्ता भी था।
एनडीडीबी कैंपस से के पास ही आणंद वेटेरिनेरी कालेज कैंपस है । तब वेटरिनरी कालेज कैंपस का बहुत सा हिस्सा ख़ाली झाडीझंखाड से जिनमे बहुत से ख़रगोश रहते थे । शाम ढले सियारों की हुआं हुआं शुरू हो जाती थी । एक दिन हमारे मित्र को शिकार करने का मन किया । रात को गाड़ी ले कर वेटरिनरी कैंपस में बंदूक़ और अपने छुटकू से कुक्कुर आलिवर सहित निकल पड़े वेटरिनरी कालेज कैंपस में। हेड लाइट आन थी । कई ख़रगोश गाड़ी की आवाज़ सुन झाड़ियों से बाहर निकल आये । बंदूक़ चली। कुछ धराशायी हुए। उठा कर एनडीडीबी हास्टल लाये गये और वहाँ साफ़ सफ़ाई काट कटाई बाद मसाला वसाला डाल ख़रगोश के गोश्त का कलिया बना । ज़्यादा तो याद नहीं पर खाने वालों को कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया ।
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
ग से गाँव, ग से गाय, ग से गाभिन
मेरे गाँव का नाम चतुर बंदुआरी है। पर गाँव में रहने वालों में जैसा हर जगह होता है कुछ लोग अवश्य चतुर रहे होंगे और चतुराई के लिये प्रसिद्ध भी।फिर चतुर बंदुआरी नाम कैसे पड़ा ? बताया गया इसका कारण है कि तहसील मे एक और गाँव का नाम बंदुआरी है ।मेरे वाली बंदुआरी के किसी चतुर का उठना बैठना हाकिम हुक्काम से रहा होगा और उसी ने “चतुर” बंदुआरी के आगे डलवा दिया होगा। और हमारा गाँव चतुर बंदुआरी कहा जाने लगा। दूसरी बंदुआरी बंदुआरी खुर्द के नाम से जानी जाती है।
बंदुआरी यानि वन की दुआरी । यानि वन का द्वार । वन बहुत पहले रहा होगा। हमारे बचपन में तो नहीं । वन तो नहीं पर बाग ज़रूर थे जिन्हें हम बारी कहते थे।
छोटकी बारी, बडकी बारी हमारी थी । मैना की बारी और सकुंता की बारी हमारे पट्टीदारी के परमहंस बाबा की थी ।पुन्नर बाबा के परिवार की बारी रेहारे के आगे थी खाल में जहां बाढ़ का पानी आता था। अब बारी भी न रही । कुछ पेड़ ज़रूर है । कुछ नये पेड़ और बाग लगाने का प्रयास भी हुआ है । चतुर बंदुआरी वृक्षमंदिर भी उन्नीस सौ नब्बे के दशक में शुरू किया गया ।
मेरे बचपन में घर पर तीन जोड़ी बैल हल चलाने गाड़ी ढोने के लिये थे । गाय की जगह भैंस का दूध ज़्यादा पसंद किया जाता था । दो भैंसों की याद आती है करिअई और भुइरी। करिअई बहुत दूध देने वाली थी। बाद में पता चला मुर्हा नस्ल की थी। गाभिन थी। प्रसव के दौरान बच्चा मर गया था। जिस रात वह प्रसव पीड़ा में थी उस दिन शाम से ही मुन्ना बाबू (मुझसे पाँच साल बडे चाचा) गमगीन थे । रात में जब करिअई भैंस के बच्चे के बारे में दुखद समाचार मिला मुन्ना बाबू भोंकरिया कर बहुत देर रोये। मै भी उनकी देखा देखी रोने लगा। बचपन में मैं मुन्ना बाबू की पूँछ कहा जाता था। हरदम उनके साथ घूमने खेलने के लिये तत्पर ।
बहुत दिनों बाद जब मैं शहर में पढ़ने के लिये भेजा गया तब रविवार को गाँव आने पर गाय बंधी थी। हरियाणवी थी ।बहुत मान से रखा जाता था।
हमारे समय मे गीताप्रेस नामक सांड हुआ करता था। गायों को गाभिन करने का ज़िम्मा उसी पर था।
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
घ से घर, घ से घुघुंआं, और घ से घूमना
चतुर बंदुआरी का हमारा घर दो खंड का था मतलब दो आँगन वाला था अब भी है। लगभग पौन एकड़ से थोड़ी कम ज़मीन पर बना यह घर पर पूरब की ओर एक पीपल का विशालकाय वृक्ष था । साथ मे लगा एक तेली परिवार का घर था । बाबा लोगों ने उन्हें अपनी ज़मीन माली लोगों के घर के पास दे कर बदले में उनकी ज़मीन ले ली थी । इस तरह पिपरे तर के बाबू लोगों के घर का क्षेत्रफल और बढ़ गया ।घर के बाहर पीपल का एक विशाल पेड़ था। हमारा परिवार पिपरेतर के बाबू लोगों के नाम से जाना जाता था।
अब वह घर बस यादों का घर बन कर रह गया हैं । कुँआ था । अब भी है। पर तब कुयें का पानी गगरी या गगरा से निकाल कर पिया जाता। बाद में नल यानी चाँपा कल जब बड़े आँगन में लगा तब शायद मेरी उम्र अठारह उन्नीस साल रही होगी यानि लगभग साठ साल पहले । अब भी चलता है। चाँपा कल की पाइप कुयें के पानी के तल के नीचे तक जाती थी। उसी से पानी खींचा जाता था। अब पता नहीं, शायद बाद में पाइप ज़मीन में गाड़ा गया हो । दरवाज़े पर के कुयें पर गागर भर पानी सिर पर डाल कर नहाने में बड़ा मज़ा आता था। पानी निकालने के लिये बिदेसी अथवा अन्य लोग तैनात रहते थे। साबुन का इस्तेमाल भी वही पर पहली बार किया गया होगा।
दुआरे पर दोनो बाबा लोगों, काका और समय समय से हमारे घर आये पहुना लोगों के लिये खाट बिछी रहती थी।
जाड़े और बरसात में तो सब बरामदे में ही सोते थे पर गर्मी के दिनों में सबकी खटिया बिछ जाती थी बाहर उत्तर वाले दुआरे पर ख़ाली जगह पर -जो बचपन में बहुत बड़ा और अब छोटी सी जगह लगता है- खरहा से बोहार कर पानी छिड़का जाता था ताकि धूरि बइठ जाये और हवा चलने पर कुछ आराम मिले । बाँस का बना बैना भी मिल जाता था। एक लाइन में चार पाँच खटिया लग जाती थी। ज़्यादातर खटियाओं और तख़्तों की दो पंक्तियाँ लगती थी।
जाड़े मे दुआरे पर कउडा लगता था; “थर थर काँप रहे हैं आगी बार कर ताप रहे हैं”, को चरितार्थ करते हुये । फिर क़िस्से , कहानी, गपशप और तमाम तरह की चर्चा भी होती थी। रज़ई पाड़ें, जबसे मैंने होश सँभाला, हमारे घर पर रात गुज़ारने आ जाते थे। र से रजई या यूँ कहें राजेश्वर पांडे के बारे में लिखा जायेगा।
घ से घुघुआं भी होता है। जैसा नीचे के चित्र में दिखाया गया है बच्चे को दोनों पैरों पर ऊपर नीचे झुलाते हुये कहा जाता था
घुघुआं माना उपजल धाना
बाबू ( या बच्चे का नाम) लेकर, दोनों कान पकड़ कर कहना होता था
छेदा द इहे दूनों काना !

छेदा द इहे दूनों काना !
उत्तर का ओसारा छोटा था। एक तरफ़ भइया ( मेरे पितामह) की खटिया दूसरी तरफ़ छोटा बरामदा और बाबा ( मेरे पितामह के छोटे भाई) की कोठरी , बीच में घर के अंदर जाने के लिये बड़े दरवाज़े से हो कर अंदर जाने का रास्ता । फिर दरवाज़ा बड़ा सा काले रंग के दो कपाट एक दालान से होते हुये छोटे ओसारे और बड़े आँगन मे जाने का रास्ता।
पूरब का ओसारा उत्तर के ओसारे की तुलना में काफ़ी लंबा था। काका ( मेरे पहलवान चाचा), मुन्ना बाबू और मेहमानों की खटिया पूरब के ओसारा में ही लगती थी। सबसे पीछे होती थी रज़ई बाबा (राजेश्वर पांडे) की बंसखटिया। रजई बाबा के बारे में लिखेंगे र में।
मेरा घ से घूमना गाँव के सिवान तक ही सीमित रहता था। छोटकी बारी, बड़की बारी, मैना की बारी, शकुंता की बारी, और बाबा की बारी तो थे ही कुछ अकेले या दुकेले पेड़ अपने आप में काफ़ी अहमियत रखते थे। आमों मे

क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
ङ माने कुछ नही
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
च से चना, च से चम्मच
चना हमारे खेत में बुढवा बाबा के जमाने में बोया जाता था। वैसे तो उनके जमाने मे गंजी ( शकरकंदी), मकई और अन्य बहुत तरह की फसलें बोई जाती थीं। गेहूं, धान, सरसों, मटर, तिल, तीसी, आदि के अलावा कोदो, मडुवा आदि की फसल भी होती थी । बुढवा बाबा ( मेरे प्रपितामह, बाबू देवनारायण सिंह) ख़ालिस किसान थे । कर्मठ , मेहनती और परिवार के लिये समर्पित तो थे ही पर गाँव में उनका बड़ा मान सम्मान था।
बुढवा बाबा पढ़े लिखे न थे । पर मेरे पिता जी (बाबू जी) यानि अपने नाती की पढ़ाई की बात जब उठी तब बुढवा बाबा ने पूरा समर्थन दिया। भइया ( मेरे पितामह) की एक न चली और बाबूजी बीएस सी एजी करने बलवंत राजपूत कालेज आगरा जा सके।आगरा से ही बाबूजी ने एम एस सी एजी एग्रीकलचरल इकानामिक्स विषय से की।
कहा जाता है बाबूजी आसपास के गाँवों में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दसवीं पास किया।
खाने वाली चम्मच से मेरा सामना तो शायद दिल्ली मे, जब मै छठे दर्जे में पढ़ने के लिये “गवर्नमेंट एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल, ईस्ट पटेल नगर मे आ कर हुआ । गाँव पर तो कड़ाही, तवा, कड़छी, कलछुल, चिमटा, थरिया, गिलासि , कटोरा , कटोरी, कटोरा, परात, गगरा, सुराही, टोंइआं आदि से ही परिचय था। कुछ चिनिया बर्तन, कप, प्लेट, शीशे के गिलास आदि गाँव पर थे पर ज़्यादा इस्तेमाल नहीं होते थे।
बड़े हुये तो हमे पता चला खाने वाली चम्मच के अलावा और भी आदमजाद चम्मच भी होते हैं। इन्हें चमचा, चाटुकार, चापलूस, खुशामदी, पिठ्ठू, जीहुजुरिया आदि भी कहा जाता है। अनादर करना हो तो परजीवी, मुफ्तखोर,मक्खन बाज आदि भी कहा जाता है।
क ख ग घ अंगिआं
पंडित जी के टूटि
गइलिआ टंगिया
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
छ से छिम्मी, छ से छटाँक
गाँव पर बचपन में मटर बोई जाती थी पर जब तक बड़े न हुये मटर को छिम्मी नाम से ही पहचानते रहे। गाँव से बाहर निकलते ही जो खेत हैं उन्हें गोयंणेपर कहा जाता था। गोयंणेपर के खेतों में ख़रीफ़ में मुख्यतः धान ही बोया जाता था। रबी की फसल गेहूं, सरसों, मटर की फसल ही ज़्यादातर बोई जाती थी। उन दिनों हमारे चार बैल थे। दो दुधारू भैंसे
सड़क के उस पार जो खेत थे उन्हें डाडेंपर कहा जाता था। जहां तक मुझे याद आता है डाँडेपर के खेत ख़रीफ़ मे पलिहर ( ख़ाली ) छोड़ दिये जाते थे। गोयणेंपर के खेत भी पलिहर छोड़े जाते थे। सन पचास और साठ के दशक में खाद मुख्यत: आर्गेनिक ही होती थी।
मै हूँ तो मेरा मन भी है। आपका भी है। सबका मन होता है। भले ही किसी ने मन कभी देखा न हो। पर होता ज़रूर है और मौक़ा मिलते ही आदमी मनमर्ज़ी करने से बाज नहीं आता।
पर एक दूसरे तरह का मन भी होता था। सोलह छटाँक से बनता था एक सेर और चालीस सेर से एक मन । छटाँक , सेर और मन किसी चीज़ के भार मापने के काम आते थे। इसी तरह पाई और मनही आयतन का माप थे। हमारे गाँव पर बचपन मे पांई और मनही का चलन था।। बीस पाई की एक मनही। अब तो किलो , क्विंटल और टन का जमाना है। चार छटाँक का पाव, आठ छटाँक का अद्धा होता था। बचपन मे पहाड़ा तो पहाड़ा रटना ही पड़ता था, अद्धा, पौव्वा, सवाईआ आदि भी रटना पड़ता था। बचपन मे जब पहुना ( मेहमान) लोग आते थे तब बाबा हमसे पहाड़ा पंढने के लिये कहते थे। जब हमारे बच्चे हुये तो हम उनसे अंग्रेज़ी के राइम्स सुनाने को कहते थे।
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
ज से जहाज़
जहाज़ हवा में उड़ते हैं और पानी पर भी चलते हैं।मैंने ज़मीन पर हवाई जहाज़ जुलाई 1957 मे बाबूजी को छोड़ने , रोब की भाषा अंग्रेज़ी ( जो मैंने बहुत बाद में सीखी) मे कहें तो “सी आफ” करने ईस्ट पटेल नगर से टांगें में बैठ कर पालम हवाई अड्डे पर छोड़ने गये थे तब देखा था। उसके बाद तो उड़ते हवाई जहाज़ ही देखे थे।१९६९ तक हवाई यात्रा कभी न की थी । पानी वाले जहाज़ में यात्रा २०२४ मे की । वैसे उन्नीस सौ साठ के दशक मे गाँव से गोरखपुर जाते समय बरसात के महीने में जब पीपे का पुल नहीं होता था राप्ती नदी पार करने के लिये नाव का सहारा लेना होता था। कई बार तो माई ( मेरी दादी ) बैलगाड़ी पर राशन और लकड़ी लदवा कर गोरखपुर आ जाती थी । बैलगाड़ी बैलों सहित और बस भी यात्रियों सहित नाव से ही नदी पार करती थी।
मेरी पहली हवाई यात्रा १९६९ में हुई।एनडीडीबी में काम करता था। दिल्ली का दौरा था। मैं जब दिल्ली जाता अम्मा बाबूजी के पास रहता था। पंद्रह रुपये रोज का डीए बनता था। मतलब अगर होटल में न रहें तो पंद्रह रुपये मिलते थे और खर्च की रसीद भी नहीं देनी होती थी।अगर होटल में रहें तो तीस रुपये रोज़ के मिलते थे पर रूम रेंट और खाने पर किये ख़र्च की रसीद देनी होती थी। । शहर में आने जाने का टैक्सी भाड़ा ऊपर से मिलता था। मैं सात दिन अम्मा बाबूजी के पास घर पर रहा ।कुल 105 रुपये डीए का हुआ। 95 रुपये में दिल्ली से बड़ौदा का रेल भाड़ा फ़र्स्ट क्लास का होता था । जो मुझे मिलता । चूँकि घर पर रहा इसलिये तो 105 रूपये बच गये। 95 रूपये रेल भाड़ा तो मिलना ही था। इस तरह 200 यात्रा उपरांत मुझे एनडीडीबी से मिलने ही थे । हवाई यात्रा की हुड़क तो थी ही। दिल्ली से अहमदाबाद का हवाई जहाज़ का किराया 230 रुपये का होता था। अपनी जेब से 30 रुपया खर्च कर हवाई यात्रा करने का सुख अलग ही था।
सोचा था अहमदाबाद से आणंद की यात्रा बस या ट्रेन से कर लेंगे। पर आश्चर्य कब हो पता नहीं होता । हुआ यह कि उसी जहाज़ में यात्रा कर रहे थे, डाक्टर माइकल हाल्स जो एनडीडीबी मे तब बोर्ड मेंबर और 1970 से 1983 तक संयुक्त राष्ट्र संघ की खाद्य एवं कृषि संस्था से एनडीडीबी में नियुक्त विशेषज्ञों के टीम लीडर भी थे। फिर क्या था मेरी अहमदाबाद से आणंद यात्रा का प्रबंध भी हो गया। रजनी ड्राइवर GMH 805 एनडीडीबी की काली एंबेसडर गाड़ी माइक के लिये ले कर अहमदाबाद एयरपोर्ट माइक के इंतज़ार में खड़े थे। अपुन भी उसी गाड़ी में आणंद पहुँच गये । यार लोग अचंभित हो गये बोले “अबे तू तो कल दोपहर आने वाला था ?” “हम बोले “उड़ कर आ गया यार “।
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
झ से झोला ,झ से झक्की
झोला सामान रखने के काम आता है विशेषकर कंधे में लटका कर चलते समय बड़ा आराम देता है। जिसके पास झोला नहीं होता वह अपना सामान गठरी में बांध लेता है। झोला छाप बुद्धिजीवी एक अलग प्रकार का प्राणी होता है। वह अपने को बुद्धिमान मानता है और दूसरों को मूर्ख। पर दूसरों में बहुतेरे उसे महामूर्ख मानते हैं । मूर्ख और महामूर्ख की विवेचना कभी बाद में अभी तो बात करते है झ से झोला की । झ से झक्कड भी होता है। झक्की लोग झक्कड कहलाते हैं। झक्की आदमी को सनकी या खब्ती भी कहा जाता है। सनकी यानी वह जो सनक में पड़ जाये । सनक अच्छी यानी सर्व हितकारी और बुरी यानी विनाशकारी भी होती है।
गांधी जी की सनक ने भारत को स्वतंत्रता दिला दी। वैसे कुछ सनकियों का मानना है कि यह कर के गांधी जी ने अच्छा नहीं किया । उनका मानना है कि यदि भारत अब भी ब्रिटेन के अधीन होता तो लंदन जाने के लिये वीसा न लगवाना पड़ता। पैसे बचते।
हिटलर की सनक के कारण मानवता को दूसरा विश्वयुद्ध झेलना पड़ा। हिटलर न होता तो गोला बारूद की इतनी खपत न होती। बारूद के उपयोग से इतने विनाशकारी अस्त्र शस्त्र न बनते। बारूद के आविष्कारक नोबल इतने धनी और मशहूर न होते। उनका नोबल प्राइज़ न होता।
सनक और सठियाने में अंतर है। वैसे सठिया जाने पर झक्की या सनकी या खब्ती होना आसान है।
अमरीका की खोज कहते हैं कोलंबस ने की। कुछ का कहना है कि कोलंबस सनकिया गया और भारत की खोज मे निकला पर पहुँच गया अमरीका। ख़ैर स्वतंत्र भारत देर से ही सही जाग गया है। अब भारत के लोगों को अमरीका की खोज की ज़हमत नहीं उठाने की ज़रूरत है क्योंकि अमरीका की खोज हो चुकी है और अमेरिका कहाँ है लोगों को पता है । इसलिये भारत से लोग अमेरिका कमाने और बस जाने के लिये जाते हैं। उन्हें भाभाभा यानि “भारत से भागे भारतीय” कहा जाता है। किसी ने मुझे बताया कि अंग्रेज़ी वर्णमाला सिखाने के लिये कुछ झोलाछाप मास्टर एबीसीडीईएफजी को समझाने के लिये मज़ाक में कहते है एबीसीडीईएफजी यानि A अमरीका B बार्न C कन्फ्यूज्ड D देसी E इमिग्र्ट्ड F फ्राम G गुजरात ।
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
ञ माने कुछ नही
क ख ग घ अंगिआं, पंडित जी के टूटि, गइलिआ टंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था

इस ब्लाग को फ़ेसबुक पर मैंने कुछ दिन पहले पोस्ट किया था । कुछ प्रतिक्रिआयें मिली ।
श्री नागर लिखिस:-बहुत अच्छे लिखे हो भाई। एक गुज़ारिश है, वर्णमाला पूरी करना। पुरानी यादों के सहारे हिन्दी भाषा की वर्णमाला याद रखने का मज़ा कुछ और ही है।
श्री कुमार उत्तर दिहिस:- Rashmi Kant Nagar कार्य प्रगति पर है । अ से अः और क से ज्ञ तक सभी अक्षरों पर पर लिखा जाना है ।
श्री मजूमदार लिखिस:-Being a babu saheb from Gorakhpur and mother tongue is hindi but never read hindi as main subject either in school or in college. Same case with me . A bengali babu born in Patna , leaving in Gujarat last 40/45 years learned bengali after retirement by way of reading bengali story books and started writing articles .There could be few mistakes in Barnabas but appreciate writings first and lastly and politely mention
mistakes of your BARNAMALAS.
श्री कुमार उत्तर दिहिस:-S B Sen Mazumdar अच्छा होता पटना के बाबू बंगाली में लिंखे होते । मैं गूगल चच्चा की मदद से भाव समझ जाता ।बबुआ अंगरेजी की जो रंगरेज़ी आप ने यहाँ की है पढ़ कर मज़ा आ गया।वैसे मैंने दसवीं तक तो हिंदी पढ़ी ही थी शायद बारहवीं तक भी, पर ठीक से याद नहीं और मार्कशीट पास में नहीं है।हिंदी, गणित और सामान्य ज्ञान के पर्चों में अच्छे नंबर पा (अंग्रेज़ी में बहुत ख़राब नंबर थे) मैं यूपी सिविल सर्विस की वन विभाग की सेवा में १९६५ में चुना गया था ।साक्षात्कार में भी पास हुआ फ़ाइनल लिस्ट में नाम था तीस में से सत्ताइसवां । अख़बार में नाम भी छप गया था।पर पाँच सीट कम की गई और हम रह गये । भाग्य में एनडीडीबी की फ़र्ज़ बजाना और आप जैसे उत्तम कोटि के सहकर्मियों का साथ निभाना जो लिखा था।
बाबू अनिरुद्ध सिंह लिखिसः- जैसा आप को विदित हो कि मेरा धर भी गोरखपुर में ही है। कयी दफा बाँसगांव से उनवल होता हुआ, गोरखपुर, गया हूँ। चतुर बनदुआरी तो नहीं देखा परन्तु जो आपनें शब्दों के माध्यम से पीपल तर के बाबू के घर, मिठुआ आम तर के स्कूल तथा गाँव-जवार का चित्रण किया है, तो ऐसा लगता है कि सब देखा हुआ है।
कार्पोरेट ने शायद एक साहित्य के आदमी को साहित्य से और अपने गाँव से दूर रखा!
नहीं बाँध सकी, किसी शहर की जूही की कली,उस पागल परिंदे का पर।
उसके गाँव की, बनेली कली, उसे जब बुलायेगी, वह चला जायेगा।
अन्ततः आप की लम्बी उम्र की कामना के साथ, आप को सादर प्रणाम 🙏
श्री कुमार उत्तर दिगिसः- Anirudh Singh बहुत बहुत धन्यवाद । पता नहीं मुझे ऐसा भान था कि आप देवरिया के किसी गाँव से हैं । पर मैं ग़लत हूँ। आप के गाँव का नाम बताइयेगा । मेरा गाँव बांसगांव से उनवल जाते समय भटवली बाज़ार के बाद आता है । बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है आपकी इन पंक्तियों में:- “नहीं बाँध सकी, किसी शहर की जूही की कली,उस पागल परिंदे का पर।
उसके गाँव की, बनेली कली, उसे जब बुलायेगी, वह चला जायेगा।”मैंने गाँव छोड़ा पर गाँव ने मुझे न छोड़ा । अब गाँव भी वह न रहा जो मेरे समय में था। तब गाँव वास्तव में और अब केवल मन में रहता है । मेरे बड़े बुजुर्ग और बहुत से समकालीन अब न रहे। रह गईं उनकी यादें । खट्टी मीठी यादों की चासनी और यथार्थ की त्रासदी सब अपने अंत: में संजोये बैठा मैं कुछ समय उन पुरानी यादों में बिता लेता हूँ । शांति मिलती है।आपकी शुभेच्छाओं के लिये धन्यवाद । आप और आप के समस्त प्रिय जनों के लिये मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ 🙏 आप बहुत अच्छा लिखते है । वृक्षमंदिर.काम के लिये कुछ लिखें !
श्री अवधेश त्रिपाठी लिखिसः- पढ़कर बहुत आनन्द आया। अपना बचपन याद आ गया। भोजपुरी शब्दों की बहुत सुन्दर प्रस्तुति है । बधाई!
श्री जतीन्द्र कुमार सूद लिखिसः- Sir, Aap kamal ka likhate hain. Poora pada. Par abhi baaki hai. 🙏🙏
श्रीमती नीला गुप्ता लिखिसः- Very interesting memories and creates clear visuals of those lovely days. Mujhe mere bachpan ki yaaden taza hui
होइहें सोई जो राम रचि राखा।
को करि तरक बढावहिं साखा।