यह अनायास उभरने वाली यादों में से एक है।
जिसकी सारी ज़िंदगी जब संगत दूध वालों कि रही हो, जीवन का बड़ा भाग आनन्द में गुज़ारा हो, दूध अमूल का पिया हो, डॉ कुरियन के साथ काम करने का सौभाग्य मिला हो, तो एक शब्द ज़हन में अवश्य आता है।
वह शब्द है, “मंथन”।
मंथन यानी दूध वालों की कहानी- माफ़ कीजिये, दूध उत्पादकों की कहानी, उनके संघर्ष की कहानी। और जब यह कहानी याद आये तो भला, मंथन के उस किरदार “भोला” को कौन भूल सकता है। नसीरुद्दीन शाह के सशक्त अभिनय ने भोला के चरित्र को न सिर्फ़ जीवंत बनाया, वरन उससे जुड़ी एक घटना को भी यादों की गहराइयों में बिठा दिया।
कौन सी घटना?
अरे वही, आपको शायद याद हो ना हो, मुझे अच्छी तरह याद है- नसीर भोला के चरित्र को जीवंत करने के लिए एक महीने तक- जब तक गाँव में फ़िल्म की शूटिंग चली, न तो नहाये न ही उन्होंने कपड़े बदले।
जरा सोचिए, उनके पास उठने-बैठने वालों पर क्या गुजरी होगी? मेरी सहानुभूति उनके साथ तब भी थी और अभी भी है।
सहानुभूति तो मेरी नसीर के साथ भी है। पता नहीं यह एक महीना उन्होंने कैसे जिया होगा, मेरी तो एक सप्ताह में ही हालत ख़राब हो गई थी।
अब आप सोच रहे होंगे, की इसमें मैं कहाँ से आ गया। फ़िल्म छोड़िए, मैंने तो किसी नाटक में भी भाग नहीं लिया, कभी किसी स्टेज पर नहीं गया। मेरी शक्ल देख कर तो कैमरा भी हड़ताल कर देता है, तो फिर मै भोला! कैसे? क्यों?
हाँ मेरी यह याद सत्य है और ये ट्रिगर हुई जब अचानक ज़िक्र हुआ “मंथन” का।
इस याद का किरदार मैं था, जी मैं यानी “छोटा ठाकुर”।
चौंक गए? यह पंडित नागर ठाकुर कब से हो गया?
तो सुनिये, अरे मैं तो लिख रहा हूँ, सो पढ़िये। कहानी की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह है।
मेरे एक पूर्वज थे भृगु जी। संन्यास लेकर हिमालय की और प्रस्थान करते समय, मार्ग में एक जगह विश्राम कर रहे थे। तभी एक बहदवास नौजवान घुड़सवार उनके पास आकर रुका। भृगु जी के पूछने पर उसने बताया कि वह चित्तौड़ का छोटा राजकुमार है, पिता का देहांत हो गया है, और भाइयों के बीच उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष चल रहा है। इस समय उसकी जान को सबसे अधिक ख़तरा है, सो वह अपने दो भाइयों के सैनिकों से जो उसका पीछा कर रहे हैं, दूर भाग रहा है।
भृगु जी ने कहा, “वापस चित्तौड़ लौट जाओ। तुम्हारे भाई युद्ध में मारे जा चुके है। ये सैनिक तुम्हें मारने नहीं, वापस ले जाने आ रहे हैं। राज्याभिषेक तुम्हारा होगा”। राजकुमार ने अपना नाम संग्राम सिंह बताया।
इस याद का किरदार मैं था, जी मैं यानी “छोटा ठाकुर”। चौंक गए? यह पंडित नागर ठाकुर कब से हो गया? तो सुनिये, अरे मैं तो लिख रहा हूँ, सो पढ़िये।

यही हुआ। राज्याभिषेक के बाद राणा संग्राम सिंह ने भृगु जी की तलाश करवाई, उन्हें कुछ दिन राज्य का आथित्य स्वीकार करने की विनती की। भृगु जी ने एक समय का भोजन आथित्य के रूप में स्वीकार करने का वचन दिया और चित्तौड़ पहुँच गये।
भोजन के बाद जैसे ही भृगु जी ने विदा लेनी चाही, उन्हें एक ताम्बूल प्रस्तुत किया गया। जैसे ही वे ताम्बूल को मुँह के निकट ले गये, राणा ने उन्हें रोका और ताम्बूल को खोल देखने को कहा।
भृगु जी ने जैसे ही तांबूल खोल कर देखा, वे क्रोधित को गये। “महाराज, मैं संन्यासी हूँ, आपने जागीर देनें का प्रयास कर मुझे अपमानित किया है। इसके परिणाम आपको भुगतने होंगे। मैं इस जागीर को अस्वीकार करता हूँ”। ऐसा कह, तांबूल फेंक वे तुरन्त वहाँ से चल दिये।
संग्राम सिंह, यानी मेवाड़ के राणा सांगा। इतिहासकार कहते हैं, की उन्हें अलग अलग युद्धों में अस्सी घाव लगे थे। उन्हें एक आँख, एक हाथ और एक पैर खोना पड़ा था। मुझे संदेह है कि ये सारे घाव भृगु जी का “आशीर्वाद” रहे होंगे।
ख़ैर, भृगु जी तो आगे निकल गये अपने गन्तव्य की और पर छोड़ गये राणा जी के लिए भीषण संकट। राजा थे सो दिया हुआ दान वापस ले नहीं सकते थे। ये संन्यासी भृगु जी कौन थे, कहाँ से आये थे, ये मालूम नहीं था। तो सैनिक दौड़ाये गये उस दिशा में जहाँ उनकी पहली मुलाक़ात हुई थी। वहाँ से पता लगाते लगाते सैनिक जा पहुँचे बाँसवाड़ा, भृगु जी के परिवार के पास।
एक ब्राह्मण के घर के सामने सैनिक! क्यों? कौन सा अपराध हो गया? किससे हुआ? अनेकों प्रश्न भयभीत परिवार के सामने खड़े हो गये। हतप्रभ हो गया परिवार जब पता चला कि वे अब वे “जागीरदार” हो गये है दो गाँवों के – दोवनी और सोवनी। पास का बड़ा गाँव है कपासन। ये है हमारे ब्राह्मण से ठाकुर होने की कहानी, और भृगु जी का वंशज होने के कारण में हो गया “छोटा ठाकुर”।
संग्राम सिंह, यानी मेवाड़ के राणा सांगा।
मेरे एक पूर्वज थे भृगु जी। संन्यास लेकर हिमालय की और प्रस्थान करते समय, मार्ग में एक जगह विश्राम कर रहे थे। तभी एक बहदवास नौजवान घुड़सवार उनके पास आकर रुका। भृगु जी के पूछने पर उसने बताया कि वह चित्तौड़ का छोटा राजकुमार है, पिता का देहांत हो गया है, और भाइयों के बीच उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष चल रहा है। इस समय उसकी जान को सबसे अधिक ख़तरा है, सो वह अपने दो भाइयों के सैनिकों से जो उसका पीछा कर रहे हैं, दूर भाग रहा है।
भृगु जी ने कहा, “वापस चित्तौड़ लौट जाओ। तुम्हारे भाई युद्ध में मारे जा चुके है। ये सैनिक तुम्हें मारने नहीं, वापस ले जाने आ रहे हैं। राज्याभिषेक तुम्हारा होगा”। राजकुमार ने अपना नाम संग्राम सिंह बताया।
अब आते हैं, “छोटे ठाकुर” के “भोला” बनने की कहानी पर। दरअसल इसे याद कर मुझे ख़ुद पर आश्चर्य हो रहा है, कि मैं यह सब कैसे कर पाया। कैसा जुनून था वह?
इस समय तक भृगु जी के परिवार की सिर्फ़ दो शाखाएँ बची थीं। एक के मुखिया मेरे पिताजी थे जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर शिक्षा विभाग में उच्च पदाधिकारी थे। दूसरी शाखा के मुखिया मेरे पिता से उम्र में बड़े थे पर शिक्षित नहीं थे सो जागीर की खेती लायक़ ज़मीन में खेती का काम देखते थे। हम उन्हें “काका जी” से सम्बोधित करते थे। काका जी साल में एक या दो बार गाँव जाते, एक ही फसल होती थी- चने की, उसकी कटाई से बिकवाली कर रुपया बटोर वापस अपने घर पहुँच जाते।
मेरे पिता जी को संदेश मिलता की उत्पादन से ज़्यादा लागत लग गई है और लगान भी बाक़ी है। दो चार साल में कभी कभार कहते की इस बार फसल ठीक ठाक हुई है, पर मुनाफ़ा नहीं हुआ है। यानी कुल मिला कर मेरे पिता ज़मीन का सिर्फ़ लगान भरते थे। वे आश्चर्य करते थे की जब तक उनके बड़े भाई (मेरे ताऊ जी) जीवित थे, दोनों शाखाओं में जागीर की खेती से जो पर्याप्त आमदनी होती थी, वो अब सालों साल से क्यों नहीं हो रही है। मुझे संदेह है कि वे जानते सब थे, पर काका जी की उम्र का लिहाज़ करके चुप रह जाते थे। मुझे माजरा कुछ कुछ समझ तो आ रहा था, पर पिता जी से कभी कुछ पूछा नहीं।
ये वाकया है सन् १९६५ का। कृषि स्नातक के अंतिम समेस्टर का परिणाम आ चुका था।
मास्टर्स के लिए एडमिशन की प्रकिया शुरू होने में कोई दस दिनों का समय था। एक दिन गाँव के प्रधान जी अचानक घर पहुँचे। वे मेरे पिता का बहुत सम्मान करते थे। में पिता जी के साथ ही बैठा था। प्रधान जी ने बताया कि बड़े ठाकुर साहब (यानी काका जी) दोवनी पहुँच चुके हैं, इस बार चने की फसल बहुत अच्छी हुई है और उन्होंने कटाई-बँटाई का काम भी शुरू कर दिया है। सो, ठाकुर साहब(यह सम्बोधन मेरे पिता के लिए था, गाँव वाले उन्हें छोटे ठाकुर साहब कहते थे)आप तुरंत मेरे साथ चलिये और अपने हिस्से का माल अपने क़ब्ज़े में कीजिए। अगर आप ने दो दिन की भी देर की तो इस बार भी कुछ हाथ नहीं लगेगा।
मेरे पिता जी अचानक इस तरह गाँव कैसे जाते। उन्होंने इनकार किया तो मैंने कहा, “मैं चलता हूँ आपके साथ। इस बार बड़े ठाकुर साहब से हिसाब मैं करके आऊँगा”। पिता जी ने अनुमति दे दी और में पहने कपड़े, जेब में बटुआ डाल (जिसमे सिर्फ़ बीस रुपये थे), निकल पड़ा प्रधान जी के साथ। सोचा एक रात का सवाल है, इन्ही कपड़ों में चला लूँगा। कपासन पहुँच कर प्रधान जी ने मुझे अपने एक विश्वस्त आदमी के साथ दोवनी भेज दिया और ख़ुद चले गये अपने घर।
कहानी की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह है।
मेरे एक पूर्वज थे भृगु जी। संन्यास लेकर हिमालय की और प्रस्थान करते समय, मार्ग में एक जगह विश्राम कर रहे थे। तभी एक बहदवास नौजवान घुड़सवार उनके पास आकर रुका। भृगु जी के पूछने पर उसने बताया कि वह चित्तौड़ का छोटा राजकुमार है, पिता का देहांत हो गया है, और भाइयों के बीच उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष चल रहा है। इस समय उसकी जान को सबसे अधिक ख़तरा है, सो वह अपने दो भाइयों के सैनिकों से जो उसका पीछा कर रहे हैं, दूर भाग रहा है।
मेरे दोवनी पहुँचने की खबर जैसे ही पहुँची, गाँव के एक व्यक्ति ने जो वहाँ का हम ठाकुरों की ड्योढ़ी सम्भालता था, मेरे लिये गाँव के एकदम बाहर एक चारपाई लगवा दी और सन्देश दिया की वे बड़े ठाकुर साहब को मेरे आगमन की सूचना भेज रहा है। साथ ही ‘रावले’ (गाँव में ठाकुरों का निवास स्थान) में मेरे रहने की व्यवस्था भी।
जैसे ही बड़े ठाकुर साहब को ‘छोटे ठाकुर’ साहब के अचानक आने की सूचना मिली, उनके कान खड़े हो गये, भाँग का सारा नशा उतर गया (वे दिन में तीन बार भाँग का सेवन किया करते थे)। मैं ज्योंही ‘रावले’ पहुँचा तो बड़े ठाकुर के चेहरे का रंग ही उड गया। वे मेरे पिता जी की प्रतीक्षा कर रहे थे, और सामने मुझे खड़ा पाया। मुझसे पूछा, “हेमशंकर कहाँ है”? मैंने उत्तर दिया, “वे नहीं, मैं आया हूँ”। उन्हें आभास हो गया की इस बार मुसीबत आ खड़ी हुई है।
अब थोड़ा रावले के बारे में जान लें। किसी जमाने में एक बड़ा समृद्ध मकान हुआ करता था, वहाँ बाँई और एक छोटी नवनिर्मित कोठारी थी। यही एकमात्र पक्का ढाँचा था। पुराने मकान के अवशेष कुछ टूटी-फूटी ईंटों के ढेर बने एक कोने में उपेक्षित पड़े थे। उसी के पास एक छपरा था जिसकी छाँव में रावले का रखवाला अपने पशु बांधा करता था। दूसरे छोर पर एक शौच स्थान और कच्चा स्नान घर था।
आठवें दिन दो हज़ार रुपये नक़द और कोई ९०० किलो चना साथ लेकर जब वापस अपने घर पहुँचा, तो मेरी सूरत मन्थन के “भोला” सी थी। एक बार तो लगा कि घर वाले पहचानने से इनकार कर देंगे- कपड़ों की गन्ध की वजह से।
पक्की कोठारी में बड़े ठाकुर साहब पहले से ही जमे हुए थे। ऐसे में छोटे ठाकुर- यानी मेरे लिये कोई जगह ना थी। लिहाज़ा, पशुओं को स्थानांतरित कर उस जगह की साफ़ सफ़ाई कर मेरे रहने सोने की व्यवस्था कर दी गई- नये छोटे ठाकुर के लिये गायों का तबेला? एक चारपाई पर एक नई चादर, नये ग़िलाफ़ के साथ एक तकिया और एक नया ख़ेस- रात में ओढ़ने के लिये। रावले के रखवाले का घर सामने ही था। वह भी गाँव के ९०% ब्राह्मणों में से एक था, सो खाने पीने का प्रबन्ध उसी के घर हो गया। रात का भोजन कर मैं थक कर सो गया।
बड़े ठाकुर ने सवेरे पूछा, “बताओ, कैसे आना हुआ”?
“फसल का अपना हिस्सा लेने आया हूँ”, मैंने उत्तर दिया।
“बहुत अच्छा। अभी हिसाब कर देता हूँ”, बड़े ठाकुर बोले। एक काग़ज़ निकाला, उँगलियों पर कुछ गिना और जेब से दो सो रुपये मेरे हाथ में रख कर बोले, “बेटा, ये रहा तुम्हारा हिस्सा। अब लौट जाओ उदयपुर, पहने कपड़े जो आये हो। अभी निकल जाओ”।
मैंने कहा ठीक है, परन्तु पहली बार यहाँ आया हूँ तो एक चक्कर गाँव का लगा लेता हूँ। फिर सीधा बस लेकर लौट जाऊँगा। बड़े ठाकुर से विदा लेकर, गाँव का चक्कर लगाने निकला तो साथ रावले के रखवाल ने उसके बेटे हरिशंकर को मेरे साथ कर दिया।
हरिशंकर मुझसे उम्र में कोई दस साल छोटा रहा होगा। पर था चतुर। गाँव के बाहर निकलते ही बोला, “छोटे ठाकुर साहब, आप दो चार दिन और रुक जाते तो सारी फसल का हिस्सा लेकर जाते”।
मेरा माथा ठनका, “सारी फसल? बड़े ठाकुर तो कह रहे थे की सारी फसल तो कट गई और बँटाई भी हो गई”। वो मुस्कुराया और बोला, “अभी तो तिहाई कटी है। जो बची है, वो ज्यादा उपज वाली है। हमने गाँव के दो चक्कर लगाये, सभी हिस्सेदारों से मुलाक़ात की तो हरि की बात समझ आई।
रावले वापस आकर मैंने घोषणा की कि में यहाँ अभी और कुछ दिन ठहरूँगा। बड़े ठाकुर को तो जैसे साँप सूँघ गया। बोले, “बेटा कैसे रहोगे, तुम्हारे पास तो बदलने के कपड़े भी नहीं हैं। तौलिया भी नहीं है”। शहर के रहने वाले हो, यहाँ गाँव में कैसे रह पाओगे”?
हरि अपने घर से एक नया तौलिया और साबुन ले आया। रोज़ सवेरे एक नया नीम का दातुन मेरे सिरहाने होता था।
सात दिन उठते सोते एक ही जोड़ी कपड़ों में, उस तौलिये, साबुन और नीम के दातुन के सहारे काम चलाया।
आठवें दिन दो हज़ार रुपये नक़द और कोई ९०० किलो चना साथ लेकर जब वापस अपने घर पहुँचा, तो मेरी सूरत मन्थन के “भोला” सी थी। एक बार तो लगा कि घर वाले पहचानने से इनकार कर देंगे- कपड़ों की गन्ध की वजह से।
शुक्र है, कि मंथन मेरे इस एडवेंचर के कोई आठ साल बाद बनी। गर्व से कह सकता हूँ की “असली भोला” तो मैं हूँ, नसीर ने तो मेरे एडवेंचर को दोहराया है”। हाँ, एक फ़र्क़ है, मैं सातों दिन नहाया, पर कपड़ों की गन्ध?