Rashmi Kant Nagar


अर्थशास्त्र भी कोई पढ़ता है यार? यानी कोई अपनी मर्ज़ी से इस विषय का चुनाव करे? मेरी समझ में बिरले ही ऐसा करते हैं। ज़्यादातर तो मेरे जैसे होते हैं, जिन पर अकारण या यूँ कहिये, परिस्थितियाँ ऐसे नीरस विषय को थोप देती हैं।

सच कह रहा हूँ, मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ। B Sc एग्रीकल्चर के अंतिम वर्ष का पहला सेमेस्टर, पहले दो सालों में पढ़ाई पर जरा भी ध्यान नहीं दिया क्योंकि मन बना लिया था, फ़ौज में अफ़सर बन जाने का। इस इरादे की शुरुआत हुई १९६२ में जब भारत – चीन के युद्ध के दौरान, दिल्ली के पास NCC कैंप में भारतीय सेना के पराक्रम के बावजूद भारत की हार की खबरों ने मन को बहुत विचलित कर दिया था। और फिर मेरा सारा ध्यान सिर्फ़ NCC की ट्रेनिंग पर केंद्रित हो गया क्योंकि उद्देश्य था, C सर्टिफिकेट पास करके आर्मी में अफ़सर बनने का। पूरी शिद्दत से NCC की, C सर्टिफिकेट की परीक्षा भी दी, पर फेल हो गया।

दरअसल फेल हुआ नहीं, कर दिया गया। वाक़या कुछ यूँ हुआ कि जो आर्मी के कर्नल साहब परीक्षा लेने आये थे, उन्होंने मेरे चेहरे पर – मेरी बढ़ी हुई दाढ़ी पर कटाक्ष किया, मैंने नज़रों ही नज़रों में उनकी भारी भरकम मुँछों पर निशाना साधा। वे ताड गये, और तुरन्त ऐलान कर दिया की मुझे फेल करेंगे। 

पहले मैं समझा की मज़ाक़ कर रहे हैं। भला कोई पब्लिक में अपने इरादे ज़ाहिर करता है? पर जब एक एक्सरसाइज के दौरान हम दोनों अकेले थे, उन्होंने साफ़ शब्दों में मुझे कह दिया कि, हालाँकि में पास होने योग्य हूँ, वे मुझे सिर्फ़ इसलिये फेल कर रहे हैं, क्योंकि मैंने उनकी आँखों में सीधे देखने की जुर्रत की। में फिर भी इसे मज़ाक़ ही समझ रहा था, परन्तु वे तो अपने शब्दों पर अटल रहने वाले निकले, लिहाज़ा मुझे B Sc के अंतिम वर्ष के अंतिम सेमेस्टर में अपने आर्मी अफ़सर बनने के सपने को चकनाचूर होते देखना पड़ा।अन्धकारमय भविष्य स्पष्ट दिखाई देने लगा ख़ास कर इसलिये कि आर्मी जॉइन करने के प्लान के बारे में घर-परिवार को अंधेरे में रखा था।


‘तेरे पास तो इकोनॉमिक्स और डेयरी साइंस दोनों की मास्टर्स की डिग्रियाँ हैं, अप्लाई कर’, अभी मेरे सामने’। 
उन्होंने एप्लीकेशन अपने सामने लिखवाई, सामने के पोस्ट ऑफिस से दस रुपये का पोस्टल ऑर्डर मँगवाया, डिपार्टमेंट के चपरासी को भेज रजिस्ट्री से मेरी एप्लीकेशन भिजवाई, हाथ में रसीद दी, चाय पिलाई और बेस्ट ऑफ़ लक के साथ विदा किया। 

प्रोफ़ेसर आर के भार्गव

उन दिनों B Sc एग्रीकल्चर की डिग्री पा लेने के तुरंत बाद एग्रीकल्चर एक्सटेंशन ऑफिसर की नौकरी मिल जाती थी। इंटरव्यू दिया, नियुक्ति पत्र मिला तो ख़ुशी ख़ुशी पिताजी को बताया। उन्होंने मुझे कागज कलम लाने को कहा और तुरन्त ही नौकरी अस्वीकार करने के लिए पत्र लिखवा दिया। ये मौक़ा भी गया हाथ से। एक एन्य विकल्प- चाय बाग़ान में नौकरी का (अच्छे वेतन के साथ गाड़ी के साथ) उसे भी अस्वीकार करवा दिया। मैंने जिरह की तो मुझे निरुत्तर करने के लिए एक सीधा प्रश्न पूछा, “सिर्फ़ B Sc की डिग्री के साथ जीवन के कहाँ तक पहुँचोगे? फिर आया फ़रमान “आगे पढ़ाई करो और पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री अच्छे अंकों से हासिल करो”। 

अब एक ही विकल्प था कि गिर-पड़ कर M Sc किया जाय, पर M Sc में दाख़िले के लिए न्यूनतम योग्यता भी तो होनी चाहिये। अगर पहले के दो वर्षों में पढ़ाई पर ध्यान दिया होता तो इमरजेंसी में प्लान B ना बनाना पड़ता, भविष्य इतना भयावह नहीं लगता, परंतु उस ज़माने में प्लान B छोड़िये, प्लान A का चलन भी नहीं था। मरता ना क्या करता। आख़िरी सेमेस्टर में मन मार कर दम लगाया, न्यूनतम ग्रेड पॉइंट से अधिक – अच्छा ख़ासा अधिक-फाइनल ग्रेड पॉइंट एवरेज बनाया, और घर वालों की आशा को जगाया। माता-पिता को लगा कि दाख़िला आसानी से हो जाएगा। 

पर हाय रे मेरी क़िस्मत। मेरे द्वारा चुने गये दोनों विषयों में दाख़िला नहीं मिला। इस बार मुझे धोखा मेरे ग्रेड पॉइंट ने नहीं, बल्कि एडमिशन क्लर्क की हेराफेरी ने दिया। अदालत में मुक़द्दमा लड़ने के पैसे तो परिवार के पास थे नहीं, सो यूनिवर्सिटी के उपकुलपति से गुहार लगाई। वे मेरे पिताजी के अच्छे परिचित थे। उन्होंने अपने अधिकारों का उपयोग कर मेरे लिये सीट बनाई, और मुझे मेरे द्वारा चुने गये दो विषयों में से कोई एक विषय में तुरन्त दाख़िला लेने को कहा। में बहुत खुश, परन्तु एक गड़बड़ हो गई- उन्होंने कॉलेज के डीन को एडमिशन में हुई गड़बड़ी के लिए लताड़ दिया। 

अब मेरे लिये सीट रिज़र्व होने के बावजूद एडमिशन लेना असंभव हो गया। कारण स्पष्ट था- समेस्टर सिस्टम में पंगे लेकर दाख़िला लेना, यानी मगरमच्छ के ताल में छलाँग लगाना होता। 

तो फिर वापस जहां थे- ना फ़ौज, ना नौकरी, ना आगे की पढ़ाई की संभावना। शाम को पिताजी से कहा कि क़ानून की पढ़ाई करूँगा। मेरे बड़े भाई थोड़ी दूर खड़े सब सुन रहे थे। उस समय कुछ नहीं बोले, साइकिल उठाई और रोज़ की तरह घर के बाहर। पिताजी ने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैं अगले दिन LLB में एडमिशन के लिए फॉर्म ले आया, और तुरन्त भर भी दिया। वैसे सुबह मैंने मेरे पिताजी और बड़े भाई को धीमी आवाज़ में बड़ी गम्भीर मंत्रणा करते देखा, पर इसका क्या विषय था, इसका मुझे कोई भान नहीं हुआ। 

लॉ कॉलेज रात्रि में चलता था क्योंकि क़ानून की पढ़ाई करने वाले काफ़ी विद्यार्थी दिन में नौकरी करते थे। दोपहर कोई १२ बजे पिताजी ने मुझे बुलाया और कहा कि तुम्हें आज २ बजे आर्ट्स कॉलेज में जाकर, अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष से मिलना है, उन्होंने तुम्हें एडमिशन के संबंध में बुलाया है। “ठीक है”, मैंने कहा और जा पहुँचा उनके पास। 

उन्होंने घड़ी देखी, ठीक २ बजा था, मेरी और देख मुस्कुराये, शायद समय पाबन्दी की सराहना कर रहे थे। बोले, “अभी क्लास लेने जा रहा हूँ, तुम भी मेरे साथ चलो और अन्दर बैठ ज़ाओ। क्लास के बाद इत्मीनान से बात करेंगे”। मैं उनके साथ चल पड़ा और क्लास की आख़िरी लाइन में किनारे की एक ख़ाली कुर्सी पर बैठ गया। 

अचानक अपना नाम सुना। अनायास मुँह से निकला, ‘यस सर’। 

‘ओह, यू आर प्रेसेंट, वेलकम टू MA इकोनॉमिक्स क्लास’। 

मेरा सिर चकरा गया। ये क्या, कैसे, और क्यूँ हुआ? कुछ समझ नहीं आ रहा था। जब क्लास पूरी हुई तो प्रोफेसर साहब से कहा, ‘ सर मैंने तो इकोनॉमिक्स में एडमिशन के लिए कोई फॉर्म भी नहीं भरा है, आपको शायद कोई ग़लतफ़हमी हुई है। मुझे तो पिताजी ने आपसे एडमिशन के सम्बन्ध में मिलने भेजा है”।मैं यही समझ रहा था की मेरा एडमिशन एग्रीकल्चर कॉलेज में किसी तीसरे ही विषय में करवाने के लिए ये मुलाक़ात की जा रही है। 

“मुझे तुम्हारे बड़े भाई ने तुम्हारा फॉर्म दे दिया था, और तुम्हारी फ़ीस भी भर दी गई है। अब तुम मेरे विद्यार्थी हो”, प्रोफेसर साहब ने एलान कर दिया और मुझे निर्देश दिया कि एडमिशन ऑफिस से अपनी फ़ीस की रसीद लेता जाऊँ। 

जिसे अर्थशास्त्र का ‘अ’ ना आता हो, उस बदनसीब के सर सीधे मास्टर्स की पढ़ाई थोप दी जाय, तो सोचिए उसकी क्या मानसिक दशा होगी। अब समझ आया कि पिताजी और बड़े भाई की वो गम्भीर मंत्रणा वास्तव में एक षड़यंत्र था। इसकी पुष्टि उसी शाम हो गई, जब भाई ने सीधे पूछा, ‘लॉ कॉलेज रात में चलता है। वहाँ दाख़िला लेकर दिनभर क्या करते? आवारागर्दी? 

मैं निरुत्तर, सर झुका कर फ़ैसला मंज़ूर करना पड़ा। चार विषय थे, उनकी सारी क्लासेज़ भी ज़बरदस्ती अटेंड करनी पड़ी क्योंकि प्रोफेसर साहब पिताजी के मित्र थे। बंक करने पर गंभीर परिणाम भुगतने का ख़तरा जो सर पर मंडरा रहा था। सारे विषय नीरस और उनमें सबसे अधिक नीरस- पब्लिक फाइनेंस। 

मुझे कभी समझ नहीं आया कि में पब्लिक फाइनेंस क्यों पढ़ रहा हूँ। मुझे क्या भारत का वित्त मन्त्री बनना है, या किसी बैंक का अध्यक्ष? कुछ भी तो नहीं, फिर ये ज़लालत क्यों झेल रहा हूँ? एक मैडम पढ़ाती थीं, में नोटबुक खोले पेन तैयार रख उन्हें एकटक एकाग्र होकर देख ये कोशिश करता था की अगर थोड़ा कुछ समझ आये, तो नोट्स ले लूँ, (हालाँकि आँखे बंद करके एकाग्र होना अधिक कारगर सिद्ध होता, आँखे खुली रखना आवश्यक था अन्यथा मैडम ये समझतीं कि में क्लास में सो रहा हूँ), मगर मैडम ये समझ रही थी की में ये उन्हें नर्वस करने के लिए उन्हें एकटक देख रहा हूँ (ये बात मुझे एक साल बाद पता चली)। सर धुनते सारा साल निकाला। वार्षिक परीक्षा हुई, परिमाण अनअपेक्षित- पास -गुड सेकण्ड क्लास! सिर्फ़ पब्लिक फाइनेंस में न्यूनतम पास मार्क्स। 

जब MA का पहला वर्ष पास कर लिया तो नई दुविधा ने जन्म लिया। MA पूरा करूँ या वापस एग्रीकल्चर कॉलेज में किसी नये विषय में दाख़िला लूँ। एग्रीकल्चर कॉलेज का रुख़ किया और एक नये विषय, ‘डेयरी साइंस’ में दाख़िला ले लिया। अगले दो वर्ष ख़ूब मेहनत भी की, ICAR की डेयरी टेक्नोलॉजी की जूनियर फेलोशिप (जो उन दिनों सारे भारत में सिर्फ़ एक हुआ करती थी, और जिस पर NDRI का आधिपत्य था), मेरे पल्ले आ गई। M Sc में टॉप करने पर अच्छी नौकरी की उम्मीद ना सिर्फ़ मुझे हुई, माता-पिता भी मेरे उज्जवल भविष्य की संभावना से आश्वस्त हो गये। 

पर मेरा चुनाव फिर ग़लत साबित हुआ। सरकारी क्षेत्र में नौकरियाँ थीं नहीं, प्राइवेट सेक्टर जो सीमित था, उसमे सिर्फ़ NDRI से डिग्री प्राप्तकर्ता ही नौकरी पाता था। सहकारी क्षेत्र में एकमात्र डेयरी अमूल थी, वहाँ नौकरी छोड़िए, अपने पैसों से ट्रेनिंग पाने की कोशिश भी नाकाम रही। 

यानी फिर लौट कर एक अनिश्चित भविष्य की ओर। कॉलेज के डेयरी साइंस डिपार्टमेंट में लेक्चरर के पद की ऑफ़र ज़रूर आई, पर मैंने अस्वीकार कर दी। मुझे दिक़्क़त पढ़ाने से नहीं थी, परंतु परीक्षा पत्र जाँच करने और ग्रेडिंग में थी। बहुत बोरिंग काम है, हर सेमेस्टर, साल दर साल वही रूटीन, जैसे आजीवन कारावास मिला हो। कुछ और ही करना था, पर क्या ये मालूम नहीं पड़ रहा था। लिहाज़ा फिर रूख किया आर्ट्स कॉलेज का, सोचा MA अधूरा छोड़ना बुद्धिमानी नहीं होगी, विषय नापसंद ही सही, कुछ सोचने को एक साल का समय और MA की डिग्री, दोनों मिल जाएँगे।

MA भी पास कर लिया, अब एक नहीं दो पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री धारक बेरोज़गार की तरह मेरी पहचान होने लगी। लगता था जैसे गले में दो भारी-भरकम घंटियाँ किसी ने बांध दी हैं।एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज में B Sc के बाद रजिस्ट्रेशन करवाया था, वहाँ से आवेदन के १५ दिन बाद सिर्फ़ रजिस्ट्रेशन नंबर ही आया। उसके बाद सालों तक ना कोई चिट्ठी- पत्री, ना कोई अच्छी खबर, सिर्फ़ चुप्पी। 

अब दिन भी अंधेरी रात से लगने लगे। आर्ट्स कॉलेज में MA की मार्क्स शीट आ गई थी, पर वहाँ जाकर उसे लेने का मन नहीं हो रहा था। कोई दो सप्ताह बाद, कॉलेज का रुख़ किया, मार्क्स शीट ली, नंबर देखे तो सर फिर चकरा गया- लगा अगर आठ-दस घण्टे मन लगा कर पढ़ाई की होती, तो MA में फर्स्ट क्लास से पास होता और अच्छी नौकरी मिलने की संभावना बढ़ जाती। पर जो होना था सो हो चुका, कहावत है ना, “अब पछताये क्या होत है, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत”। 

MA की मार्क्स शीट लेकर निकला ही था कि सोचा डेयरी साइंस डिपार्टमेंट वहाँ जाकर मेरे पुराने शिक्षकों से मुलाक़ात कर लूँ। आर्ट्स कॉलेज मेरे डेयरी साइंस डिपार्टमेंट के नज़दीक ही था। पता नहीं क्यूँ पर उस दिन मेरे पास डेयरी साइंस की डिग्री और मार्क्स शीट की प्रतियाँ भी थी। 

डिपार्टमेंट में घुसते ही सामना हुआ हम सभी छात्रों के प्रिय गुरुजी श्री आर के भार्गव साहब से। वे ना सिर्फ़ बहुत अच्छा पढ़ाते थे, बल्कि बहुत नेक इंसान थे। जहाँ पढ़ाई में हमारी ढिलाई बर्दाश्त नहीं करते थे, वहीं हर किसी की हर सम्भव मदद करने तो तत्पर। सिर्फ़ हमारा भला चाहते थे। बड़े भाई की तरह प्यार करने वाले शुभचिंतक की बात / सलाह भला कौन नहीं मानेगा। 

उन्होंने जैसे ही मुझे देखा बोले, ‘अरे नागर, कोई नौकरी मिली?’

मैंने उत्तर दिया, ‘नहीं सर’।

‘NDDB में कुछ भर्ती हो रही है। अप्लाई किया’? उन्होंने पूछा।

‘ये किस चिड़िया का नाम है? ‘ मेरा उत्तर मेरी निराशा प्रकट कर रहा था। 

‘NDDB नहीं मालूम? इण्डियन डेयरीमेन और अख़बार पढ़ना बंद कर दिया क्या?’- भार्गव साहब ने फिर पूछा। 

‘अख़बार पढ़ता हूँ सर परंतु सिर्फ़ फ्रंट पेज की हेडलाइन्स’। मैंने कहा। 

‘मेरे ऑफिस में चल’। वे मेरे आगे आगे और मैं उनके पीछे पीछे। 

उन्होंने ड्रॉअर से एक अख़बार की कटिंग निकाली। NDDB में नौकरियों का इश्तिहार था। उसने एक पद था, ‘अप्रेंटिस एग्जीक्यूटिव’ इन इकोनॉमिक्स। 

‘तेरे पास तो इकोनॉमिक्स और डेयरी साइंस दोनों की मास्टर्स की डिग्रियाँ हैं, अप्लाई कर’, अभी मेरे सामने’। 

उन्होंने एप्लीकेशन अपने सामने लिखवाई, सामने के पोस्ट ऑफिस से दस रुपये का पोस्टल ऑर्डर मँगवाया, डिपार्टमेंट के चपरासी को भेज रजिस्ट्री से मेरी एप्लीकेशन भिजवाई, हाथ में रसीद दी, चाय पिलाई और बेस्ट ऑफ़ लक के साथ विदा किया। 

८ जुलाई १९६९ को मेरा इंटरव्यू हुआ। में एकदम ना उम्मीद था क्योंकि इस पद के लिए बुलाये गये चार लोगों में से तीन नामी यूनिवर्सिटीस के ‘गोल्ड मैडलिस्ट’ थे और में- एक नई अनजान यूनिवर्सिटी का द्वितीय श्रेणी में पास “अर्थशास्त्री”। में आश्वस्त था की मेरा चयन नहीं होगा, परंतु जब चुने गये उम्मीदवार के नाम की घोषणा हुईं तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना ना था। 

अचानक मन ही मन ये गीत गाया, “साला में तो साहब बन गया”!