
डियर शैलेन्द्र,
बात बस अमरोहा की हो तो कफ़ील अजर अमरोहवी को याद करना पड़ेगा। उन्होंने फ़रमाया था कि “बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी” ! इंशाअल्लाह जगजीत सिंह ने इसे दूर तक पहुँचा दिया । क्या गाया कि पूछो मत।खुदा इन सब मौसीकारो और शायरो को जन्नत बख़्शे । मौसीकार शायरी को एक अलग लेवल पर ले जाते है और सुनने वाले की रूह झनझना देते हैं।
हमे बताया गया कि यह एक नज़्म है, ग़ज़ल नहीं। हम तो ग़ज़ल ग़ज़ल करके पीछे पड़े थे! आज तक फर्क हमारी समझ से परे है, खैर, श्रीमती सुमित्रा राय चौधरी ने ग़ज़ल के बारे में समझाते हुए दो लाइनें सुनाईं थी कुछ योंः
“फ़िक्र मोमिन की, जुबान दाग़ की, ग़ालिब का बयान, मीर का रंग-ए – सुखन हो, तो गज़ल होती है, सिर्फ अल्फ़ाज़ ही माने नहीं करते पैदा, जज़्बा-ए-खिदमत- ए-फन हो तो गज़ल होती है।”
अमरोहा की ज़मीन ही कुछ ऐसी है, जहां देखो वहाँ जज़्बा-ए-खिदमत- ए-फन दिखाई देता है।
और वहाँ के शायर अलग ही दुनिया में रहते हैं। शायरों के रहने के तरीक़े भी अलग .. जैसे किसी अमरोहवी ने फ़रमाया,
ज़बानों ज़ेहन का बखिया जुदा जुदा
फटी हुई है दुलाई, बने हैं अल्लामा !
हमारे पिता जी अमरोहा वाले थे अमरोहवी नहीं।अमरोहवी शायरो का तखल्लुस होता था। पिता जी जिन्हें हम पापा कहते थे अमरोहा में जन्मे, पले, बड़े हुये। शायर तो नहीं पर कुछ असर तो होना लाज़मी था। एक दिन हम बच्चों को सीख देते हुए बोले;
मत कर कोई काम ज़िम्मेदारी समझ कर , करना है जो भी, कर मुहब्बत के नाम पर
बतौर ज़िम्मेदारी बहुत बोझ महसूस होगा, ग़र प्यार से करेगा महसूस प्यार होगा
पिता जी की कोशिश ज़िंदगी भर चालू रही, कि शायद हम कुछ बदल जाये, दूसरे लफ्जों में सुधर जाए।चंद लफ़्ज़ों में बड़ी बात कहते हुए, एक बार हमे सुनाते हुए बोले;
लब पे आई जो शिकायत तो मोहब्बत ने कहा, देख!, खबरदार, ख़ामोश! ये दस्तूर नहीं है !
सुनकर हमनें भी दस्तूर के मुताबिक खोपड़ी हिला दी और अपनी धुन में मस्त आगे बढ़ गये, बगैर सुधरे।
उर्दू में एक शब्द है ‘बद’। जहां भी किसी दूसरे लफ़्ज़ के पहले लगा दो तो उसका मतलब उल्टा हो जाता है जैसे बदतमीज़, बदमिजाज वग़ैरह। पिता जी शायद चाहते थे कि उनका बेटा भी बदतमीज से थोडा तमीजदार बन जाय। यानि मैं बदल जाऊ।एक बार हमें सीख देते हुए बताया;
किसी ने शेख़ सादी से पूछा, जनाब आपने इतनी तमीज़ कहाँ से सीखी?
शेख़ सादी ने कहा, “बदतमीजों से !”
यह बताने के बाद थोड़ा रूक कर बोले, “यह बात मेरे पिता जी ने बताई थी”!
अब हम भी ठहरे अमरोहा वाले, मन ही मन सोचा, आप बाबू प्रेम वत्सल बनाम सत्य आत्मा हैं। आप को यह सारी बातें समझ आती होंगी। हमारा नाम मानू यानि बन्दर है।और हमारी समझ कुछ अलग है, कुछ नाम के हिसाब से और कुछ बदलते वक्त के नजरिए के साथ कदमताल होने से। और हमने मन ही मन फ़रमाया (मन ही मन, क्यों कि हमें अपनी जान प्यारी है);
यूँ ही नही हम अमरोहा वाले , तरीक़े हमारे हैं सबसे निराले
दिल में मुहब्बत होंठों पे गाली यह अंदाज़े बयां है जनाबे आली
फिर और एक वाक़या हुआ।
किसी तरह हमारी एक नोटबुक पिताजी के हाथ लग गई। उसमें हमने अपने एक क्लासमेट को ध्यान में रख कर कुछ लाइनें लिखी थीं। गौर तलब बात यह है कि उस क्लासमेट ने हमें बहुत मारा था। इससे आप समझ गये होंगे कि हमने क्या लिखा होगा। और पिताजी हमारी गालियों का खजाना और शायर पढ कर हक्के-बक्के रह गए। बकौल खुद, हमारी वाकेबुलरी देख कर एक बार तो इंप्रेस हो ही गये होंगे।
अमरोहा से संबंधित दो ब्लाग पहले ही वृक्षमंदिर पर विद्यमान हैं। यह तीसरा है ! और यह मेरे अमरोहा के दोस्त का ख़त है जो जैसे का तैसे छाप दिया जा रहा है। हम दोनों सीनियर या लगभग वेरी सीनियर सिटिज़न हैं । इसलिये भूल चूक माफ़ करें
हमे तो उस दिन केवल इतना ही उपदेश मिला “ख़ानदान और घर का नाम रोशन करने के और भी तरीक़े हो सकते हैं”।
अमरोहा में सबकुछ शायराना नहीं था। सभी बड़े लोग एक डर से पीड़ित थे की कहीं लड़के बिगड़ ना जाए।चपत, घूंसे और डन्डे का इस्तेमाल आम बात थी ।हम दोस्त लोग उसका भी पूरा मज़ा लेते थे।आज किसको कैसी मार पड़ी, कहा कहा चोट लगी, यह रोज का चर्चा का विषय होता था। हर हालत में खुश रहना, शायद यह भी शायराना मिजाज की एक मिसाल थी। इसी बात पर पिता जी को याद करते हुए बरबस एक पुराना शेर याद आ गया;
हर आदमी में होते है दस बीस आदमी
जिसको भी देखना है उसे बार-बार देख
खैर, आज के लिये बस इतना ही, और एक और शायर को याद करते हुये, जिन्होंने फ़रमाया;
ज़िंदगी सुंदर ग़ज़ल है दोस्तों
ज़िंदगी को गुनगुनाना चाहिये!
बाक़ी फिर कभी,
वैसे अभी हकीम जी बाकी है।(अमरोहा के हकीम भी काफ़ी मशहूर हैं) !!
बहुत प्यार सहित,
मानू बनाम अरविंद