कहते हैं , “जहां न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि “ । अर्थपूर्ण कविता लिखने वाले कवि ने जो जब लिखा होगा उसका अर्थ कवि के मन में क्या रहा होगा यह मेरे जैसे साधारण मानवी के लिये केवल क़यास का विषय है। अपनी समझ को साझा करने का यह प्रयास बस प्रयास भर ही है।

घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे,
समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे।
अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम,
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे।
मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जगेंगे यह विविधता, स्वप्न, खो के।
और चलते भीड़ में कंधे रगड़ कर हम,
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके।
प्रकृति और पाखंड के ये घने लिपटे,
बँटे, ऐंठे तार—
जिनसे कहीं गहरा, कहीं सच्चा,
मैं समझता—प्यार।
मेरी अमरता की नहीं देंगे ये दुहाई,
छीन लेगा इन्हें हमसे देह-सा संसार।
राख-सी साँझ, बुझे दिन की घिर जाएगी,
वही रोज़ संसृति का अपव्यय दुहराएगी।
कुंवर नारायण जी यह कविता शायद १९५९ में लिखी गई थी। मैं तो पाठक हूँ। कुंवर जी फ़ैज़ाबाद के थे और मैं पड़ोस के गोरखपुर का हूँ। पर यह कविता मैंने परसों पढ़ी । मै चंद महीनों में जीवन के आठवें दशक में प्रवेश करने वाला हूँ ।
जी मैं काफ़ी दिनों से एक रिटायर्ड आदमी हूँ । घर के कामों के अलावा मेरे ज़िम्मे अब कोई काम नहीं। पढ़ता, लिखता, घर का काम करता, टहलता, सोता और दवाइयाँ खाता, अस्पतालों के चक्कर लगाता मैं अब सीनियर सिटीज़न हूँ। पिछले दो सालों से अस्पतालों के कई चक्कर लगे है। मेरे पास समय ही समय है पर कब तक ? एक दिन समय रहेगा मैं अचानक बीत जाऊँगा । घर भी रहेंगे पर मै उनमें न रह पाउंगा ।सीधी सी साधारण सी बात पर कवि ने कविता रच डाली।
पता नहीं क्यों अच्छी लगी यह पंक्तियाँ । सोचने पर मजबूर करती यह कविता पहली बार पढ़ते ही मन को छू गईं। सब की तरह इसका अर्थ मैं अपने तरीक़े से निकाल रहा हूँ। मनन अब भी जारी है । खैर कोशिश कर रहा हूँ अपनी अब तक की समझ को साझा करने का।
अनर्गल और आशय
“घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे,
समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे।
अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम,
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे।”
दोनों पंक्तियों को साथ लें तो मेरी दृष्टि में “अनर्गल” और “आशय” दो शब्द महत्व के है। ध्यान दें और सोचें तो ज़िंदगी कभी “अनर्गल” तो कभी बड़ी अच्छी लगती है । जैसी भी हो पर हम उसका भार ढोते हैं। क्यो? क्या ज़िंदगी का अर्थ या आशय पाने हेतु ? या यूँ ही बस जीते रहने के लिये ?
ज़िंदगी का भार ढोना पूरी तरह समझ में नहीं आता । पर यह तो समझ आता है कि ज़िंदगी कभी प्रिय कभी अप्रिय लगती है।क्या ज़िंदगी का उद्देश्य है ज़िंदगी का अर्थ ढूँढना? बहुत दिनों पहले कभी मैंने कहीं पढ़ा भी था “The purpose of life is to find meaning in life”!
“अनर्गल” शब्द का अर्थ है अप्रिय या अवांछनीय। यह शब्द किसी चीज़ को अनुपयुक्त या अच्छा नहीं मानने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसका उपयोग किसी कार्य या स्थिति को ठीक नहीं मानने के लिए किया जाता है।
“आशय” का अर्थ है किसी विचार, धारणा, या उद्देश्य का अर्थ या मतलब । दूसरी तरह से कहें तो “आशय” एक व्यक्ति के विचारों, भावनाओं, और इच्छाओं का प्रतिफलन होता है जो उसके कार्यों और व्यवहार में प्रकट होता है। पर मन में एक सवाल उठता है । क्या “आशय” का मतलब यहाँ उद्देश्य या अर्थ से है?
इस दृष्टि से सोचें तो यदि ज़िंदगी का भार ढोते बहुत परिश्रम बाद यदि ज़िंदगी का “आशय” मिल जाता है तो शायद कवि का कहना है कि हम सहसा थकान महसूस करते हैं। पर क्यों ?
विविधता स्वप्न
मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जगेंगे यह विविधता, स्वप्न, खो के।
और चलते भीड़ में कंधे रगड़ कर हम,
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके।
बहुत पहले सुनी एक लाइन याद आई।
“ज़िंदगी एक मुसससल सफ़र है मंज़िल पर पहुँचे तो आगे सरक गई
जीवन का अंत क्या मृत्यु है? या मृत्यु अंत नहीं केवल एक पड़ाव है, एक नई ज़िंदगी की शुरुआत की । कहाँ , कब, कैसे ? बतायें ? है किसी को मालूम? हो सकता है नई ज़िंदगी की शुरुआत भी न हो। पर अगर एक नई शुरुआत के पहले का पड़ाव है , तो जो जीवन पीछे छूटा जा रहा होगा स्वप्न की भाँति लगेगा। मृत्यु का सामना होने पर निद्रा से जगने पर यह संसार, यह सपना टूट जायेगा।
मंज़िल आगे सरक गई होगी । जीवन यात्रा और है तो फिर शुरू होनी ही है। एक और यात्रा जीवन का अर्थ या आशय ढूँढने की । चरैवेति चरैवेति …
“वास्तव में एक जगह ठहर जाना ही कलि है।”कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः।उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरंश्चरैवेति।।(ऐतरेय ब्राह्मण 33.3) कहने का आशय है कि सोनेवाले युग का नाम कलि है,जो गहन निंद्रा में सोया हुआ है, वह कलयुग में जी रहा है। अंगड़ाई लेने वाला युग द्वापर है। नींद से पूरी तरह उठकर खड़ा होने वाला त्रेता में है। परंतु चलने वाला सतयुग का वासी है।
वही केवल सतयुग में जी रहा है, जो सदैव चलायमान है, गतिशील है। इसलिए तुम चाहो तो अपने निरंतर प्रयास से कलयुग को भी सतयुग में परिणित कर सकते हो। आवश्यता है तो केवल बिना रुके चलने की! इसीलिए चलते रहो, चलते रहो- चरैवेति! चरैवेति! ( विस्तार से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें )
प्रकृति और पाखंड
प्रकृति और पाखंड के ये घने लिपटे,
बँटे, ऐंठे तार—
जिनसे कहीं गहरा, कहीं सच्चा,
मैं समझता—प्यार।
यहाँ प्रकृति और पाखंड दो शब्द महत्वपूर्ण है।
प्रकृति का सामान्य अर्थ है स्वभाव । एक और अर्थ है वह है शक्ति जो सभी सृष्टि तत्वों की उत्पत्ति, संरक्षण और संहार करती है। प्रकृति एक निर्माण की शक्ति है जो सृष्टि और संरक्षण के लिए समर्पित है, जबकि पाखंड एक धार्मिक या नैतिक भ्रांति, झूठ, या धोखा है। पाखंड व्यक्ति या समुदाय की निष्क्रियता, धोखाधड़ी, या भ्रांतियों का परिणाम भी हो सकता है।
प्रकृति और पुरुष की अवधारणा का वर्णन सांख्य योग मे भी है। पर मेरी समझ से यहाँ उस अवधारणा पर कुछ कहने का भी यत्न नही हुआ है।
यहाँ मेरी समझ से कवि बात कर रहा है प्यार की । प्यार हृदय से उठा भाव है। प्यार स्वभाव है । पर प्यार पाखंड भी है । और तो और प्यार, प्यार और पाखंड ( झूठ, धोखा) दोनों का सम्मिश्रण भी हो सकता है। ऐसा प्यार जो स्वभाव है और पाखंड जो दिखावा है कवि शायद इन्ही को इंगित कर रहा है।
सच्चे और झूठे प्यार के बीच अंतर करना दुष्कर है। यह दोनों प्रकृति ( स्वभाव) और पाखंड दोनों घने लिपटे ,बँटे, ऐंठे है और सच का आभास पाना कठिन है।
संसृति का अपव्यय
मेरी अमरता की नहीं देंगे ये दुहाई,
छीन लेगा इन्हें हमसे देह-सा संसार।
राख-सी साँझ, बुझे दिन की घिर जाएगी,
वही रोज़ संसृति का अपव्यय दुहराएगी।
जीव की अमरता की आकांक्षा आशा की पराकाष्ठा है । जब जीव तत्व या आत्मा या जीवनदायिनी शक्ति शरीर से अलग होती है तो क्या होता है? शरीर रह जाता है । जैसे मृत्योपरांत शरीर संसार की तरह यहीं रह जाता है। और चली जाती है जीवनदायिनी शक्ति। “देह सा संसार” का प्रयोग उपउक्त है। देह संसार का अंग तब तक ही है जब तक उसमें जीवनदायिनी शक्ति का संचार है।
संसृति का अर्थ मुझे लगा सृष्टि या निर्माण है। शंका हुई। शब्दकोश देखें तो बहुत से अर्थ और व्याख्यायें मिलीं।एक जगह गोस्वामी जी द्वारा संसृति शब्द का पद में प्रयोग भी मिला। “देव पाय संताप घन छोर संसृति दीन भ्रमत जग जोनि नहिं कोपि त्राता (८)।” यानि इस पाप संताप से पूर्ण भयानक संसार मैं दीन होकर चौरासी लाख योनियों में भटक रहा हूँ। मुझे बचाने वाला कोई नही। हे भैरव रूप, हे राम रूपी रुद्र आप ही मेरे बंधु, गुरू, माता-पिता और विधाता हैं। मेरी रक्षा कीजिये।
मुझे संसृति का अर्थ इस कविता मे “जन्म पर जन्म लेने की परंपरा” या भवचक्र मे आवा- गमन उपयुक्त लगता है।
तुलसीदास जी ने संसृति शब्द का प्रयोग भैरवरुप शिवस्तुति में किया है। नीचे इस स्तुति के दो पन्नों के स्क्रीन शाट और लिंक दे रहा हूँ।


संसृति का अपव्यय ? शायद “संसृति का अपव्यय” से मतलब “जन्म से जन्म के आवागमन की व्यर्थता से है।
आवागमन के चक्र को कौन और कैसे व्यर्थ करता होगा। जीव स्वयं? या कोई और ? सोचने की बात है।
कुंकर नारायण जी की कविताओं पर एक ब्लाग इस लिंक पर उपलब्ध है।
पुनश्च: आज १३-११-२०२४ को इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट मिली । उपरोक्त लेख में व्यक्त भावों को प्रतिबिंबित
करते हुये मन को छू गई। साझा कर रहा हूँ।