Aameen Khan Rahut
Aameen Khan Rahut


आपने लाख दक्षिण के मंदिर और उत्तर की देव प्रतिमाएं देख डाली हो; हज़ार महलों, मकबरों, मीनारों और अजायबघरों के चक्कर काटे हों, या मुंबई की चौपाटी; दिल्ली के चाँदनी चौक या आगरे के ताजमहल को देखा हो; लेकिन अगर आपने एक बार भी दफ्तर की दुनिया की सैर नहीं की तो समझिये कि आपका “दुनिया देखना” बेकार ही गया ।

हिन्दुस्तान को देखना; समझना है तो नाहक पुस्तकों मे आप क्यों सर खपाते हैं । जाइए, दफ्तर की दुनिया मे, जहाँ दस बीस नही सैकड़ों, हज़ारो आदमी एक जैसा काम करते है; एक जैसे उठते बैठते है, स्तर के अनुसार लगभग एक सा वेतन पाते है; एक से क्वार्टरों मे रहते है; मगर क्या मजाल है की वे किसी एक बात पर एकमत हो सकें । कहीं भी उनमे एकता हो !

सब एक दूसरे से निराले और अजीब।

कोई हाथी जैसा भारी भरकम, तो कोई जैसे रेगिस्तान का ऊंट। कोई घोड़े जैसा चपल तो कोई टट्टू जैसा अड़ियल। कोई भेड़िए जैसा खूंखार तो कोई कुत्ते जैसा पालतू। कोई बैल की तरह जुताई करनेवाला तो कोई बिल्ली जैसा मलाई साफ करनेवाला।कोई चपरासी की खाल मे शेर, तो कोई अफसर की खाल मैं गधा ।कोई चुप, तो कोई वाचाल । कहने का तात्पर्य यह कि विधाता ने अपनी फ़ैक्टरी मे आदमजात के भाँति भाँति के माडल तैयार किए है सब के सब नमूने दफ्तर नामक अजायबघर मे आपको मिल जायेंगे ।


दफ़्तरी लोग बहुत सी बातों मे एक दूसरे से अलग अलग है पर बाते उन सब में भी सामान्य है — जैसे सब हेड क्लार्क्स से डरते है; ऑफिसर्स से कांपते है और खुशामद करने मे 5000 के चपरासी से लेकर 25000 तक के सेक्रेटरी तक समान रूप से लगे रहते है।

यह ठीक है की वरिष्ठ अधिकारियों के सामने उनकी पैंट खिसकने लगती है। मगर दफ्तर मे उनकी कुर्सी के सामने, काम कराने के लिये खड़े होकर देखिए – छोटे से छोटा क्लर्क भी आपके होश ढीले न कर दे तो नाम नही । और क्यों न कर दे? आप अपने हक़ की लड़ाई में चाहे कितनी ही सभाएँ करवा डालिये ; प्रस्ताव पास कराइए; जूलूस निकालिए; सरकार पर ज़ोर डालिए, पर वे जानते है की राजतंत्र की चाभी आज मंत्रियों के हाथों मे नहीं; उनकी कलम की नोक मे है।

यह बात दीगर है कि घर मे बीबी के मारे उनका रहना दूभर हो रहा है; मगर यह उनकी घरेलू बाते है; इनमे दखल देने का हमे कोई अधिकार नहीं है । बाहर अगर पैंट कसे; इस्त्री न की हो; शेव ना बनी हो; जूते चमकते ना हो तो आप शिकायत कर सकते है। शनिवार को अगर सिनेमा न देखा जाए, रविवार का शाम का भोजन बाहर न करे या 15 तारीख से पहले तनख्वाह समाप्त न हो जाए, तब आप चाहे तो यह सोच सकते है की बाबू अपनी धर्म से डिग गया.

दुनिया मे बार बार युद्ध होते है और उन्हे रोकने के लिए करोड़ो डालर खर्च किए जाते है. दुनिया को सहनशीलता और शांति का पाठ किसी बड़े नेता के व्याख्यान से नही; बल्कि दफ़्तर के वातावरण से लेना चाहिए. यहाँ पर गांधी और लेनिन के शिष्य एक ही कमरे मैं आठ आठ घंटे तक रहते है । मगर उनमे कभी हाथापाई की नौबत नही आती। इसका यह अर्थ नहीं की वे चुप रहते हो या बहस नही करते हो, अथवा हर किसी की बात को मानने को तैयार हो जाता हो, वह सिर्फ बहस के लिए बहस करते है। बहस इसलिए करते है की बहस करना फैशन और बड़प्पन की निशानी हैं।

आपने पत्थर तो ज़रूर देखा होगा । खुरदुरा सा…..बस दफ़्तर के बाबू को आप वैसा ही समझिए । वैसा ही पत्थर ! संसार में कुछ भी होता रहे उसके कानों पर जू नही रेंगती । वह भला, उसका काम भला और उसकी कुर्सी रूपी सिंहासन भली।

घड़ी ने उठाया उठा; बीबी ने दिया सो खा लिया; काम मिला सो कर दिया; ना मिला तो बैठा रहा; डांट लगा दी; कांपने लगा; निकाल दिया तो रो पड़ा; साहब की सीधी नज़र हुई तो फूल गया और बीबी या किसी और लड़की ने हंस के देख लिया तो गा उठा……..



अँखियाँ मिलाके, जिया भरमा के चले नही जाना …… ………………………….. आमीन