
अंतर्नाद
अचानक देख कर “ उन्हें”
उठे जो शब्द
अनजान अज्ञात हर्ष मिश्रित
पीड़ा और भय
से बाहर आ न सके
किंचित् कंठ में ही
हो अवरुद्ध
घुट कर मिट गये होंगे
रह रहे होंगे वहीं कहीं
ऐसा सोचता था “मैं”
बीत गईं सदियाँ
लिखे गये इतिहास
संस्कृति
सभ्यतायें
जन्मी कितनी बार-बार
फिर भी तपन
हुई कहाँ कम
जबकि ऐसा नहीं कि
कोई बरसात
बरसी न हो
सोचता था
“मैं”
कि पथिक
क्या स्वयं ही
पथ खोज लेता ?
अचानक
“वे शब्द”
आँखों से बाहर आ गये!
न जाने
कब कैसे !